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सत्याग्रह माला - ६

है । गरज यह कि हम वैरभाव रखकर दुःखोंका निवारण नहीं कर सकते। यह बात गूढ़ नहीं, बल्कि समझनेमें बिलकुल आसान है । अपने हजारों कामोंके बारेमें हम देखते हैं कि वे सत्य और प्रेमसे युक्त होते हैं। बाप-बेटेका सम्बन्ध, पति-पत्नीका सम्बन्ध, गरज यह कि सभी कौटुम्बिक सम्बन्धोंमें हम अधिकतर सत्य अथवा प्रेमकी ही शक्तिको काम करते देखते हैं। इस प्रकार हम जाने-अनजाने भी सत्याग्रही होते हैं। अपनी खुदकी जिन्दगीपर निगाह डाल जायें तो हम देखेंगे कि अपने सगे-सम्बन्धियोंके साथके व्यवहारमें हजारमें नौ सौ निन्यानवे बार तो हम सत्य और प्रेमके ही वश रहते हैं। मनुष्य सदा सुबह उठकर सोने तक अपने सारे कामोंमें झूठ ही बोलता है, झूठा ही आचरण करता है, वैरभावसे ही भरा रहता है, ऐसी बात तो हरगिज नहीं है । जब परस्पर विरोधी स्वार्थ उत्पन्न हो जाते हैं, तभी सत्याग्रहके, प्रेमके कानूनमें खलल पड़ता है, क्योंकि परस्पर विरोधी स्वार्थीका जो संघर्ष होता है, उससे रोष, द्वेष आदि असत्यकी प्रजा उत्पन्न होती है, और उनसे केवल जहरकी ही वर्षा होती है । हम जरा सोचेंगे तो जो तरीका हम कौटुम्बिक सम्बन्धों में लागू करते हैं, वही हमें अपने आपसके, एक-दूसरेके, सगे-सम्बन्धियोंसे लेकर राजा प्रजाके सम्बन्धों तक और अन्तमें सारी दुनियाके सम्बन्धमें लागू करना चाहिए। जिन स्त्रियों या पुरुषोंको पारिवारिक सम्बन्धकी पहचान नहीं है- जो उसे मानते ही नहीं, वे मनुष्य-शरीरधारी होते हुए भी पशुके समान अथवा जंगली माने जाते हैं। उन्होंने सत्याग्रहका कानून जाना ही नहीं । जो पारिवारिक सम्बन्ध [और उसके दायित्वों ] को जानते हैं, वे उस पशु- जीवनसे कुछ हदतक मुक्त हो गये हैं। लेकिन उन्होंने यह मान लिया है कि पारिवारिक स्वार्थीकी रक्षा करनेमें यदि सारा संसार डूब जाये, तो भी क्या ? इसलिए उनके सत्याग्रहका स्वरूप समुद्र में रहनेवाली एक बूंदसे भी कम है ।

इससे ऊँची पंक्तिके मनुष्य अपने गाँववालोंको अपना समझेंगे और उनके बीच सत्याग्रह के कानूनपर अमल करेंगे और जैसे एक कुटुम्बके लोग एक-दूसरेके साथ हमेशा झगड़नेके बजाय प्रेमके वश होकर स्वार्थत्याग करेंगे, वैसा ही एक गाँवके आदमी करेंगे। इससे आगे बढ़कर प्रान्तीय जीवनमें सत्याग्रहका प्रवेश करके प्रान्तके सारे लोगोंको अपने भाई-बहन समझकर मनुष्य आपसमें प्रेमशक्तिसे अपना व्यवहार चलायेंगे। इससे आगे बढ़े हुए लोग, जैसे कि भारतके, अलग-अलग प्रान्तोंके लोगोंको भी अपने भाई-बहनके समान मानकर पारस्परिक व्यवहारमें सत्याग्रहका कानून लागू करेंगे ।

इस जमाने में आम तौरपर इससे आगे पृथ्वीके किसी भागके लोग नहीं गये हैं । परन्तु सच पूछा जाये, तो एक देशके लोगोंका दूसरे देशके लोगोंसे विरोध होनेका जरा भी कारण नहीं होना चाहिए। यदि हमारा जीवन साधारणत: विचारहीन न हो और यदि हम प्रचलित रूढ़ियों और प्रचलित विचारोंको चालू सिक्केकी तरह जाँच किये बिना स्वीकार न कर लें, तो हम अवश्य देख सकेंगे कि जिस हदतक हम दूसरे देशके लोगोंके साथ द्वेष रखते हैं, जीव-मात्रसे द्वेष रखते हैं, उस हदतक हम सत्याग्रहके कानूनसे विमुख रहते और उस हदतक हम पशुकी स्थितिसे मुक्त नहीं हुए हैं। मनुष्य- मात्रका पुरुषार्थ अर्थात् स्त्री-पुरुष दोनोंका पुरुषार्थ पशुतासे मुक्त होने में ही है । जगत् में इससे भिन्न कोई दूसरा धर्म नहीं है । सम्प्रदाय, दल, मन्दिर, हवेलियाँ आदि हमें इस



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