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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विरोधी के प्रति दुर्भावना अथवा द्वेष-भाव रखकर अथवा इन भावनाओंको और बढ़ाकर अपने ध्येय तक पहुँचनेकी कभी इच्छा नहीं रखता। वह तो अपने विरोधीको भी मित्र समझता है। उसके प्रति द्वेष रखे बिना उसके किये हुए अपकृत्योंका विरोध करता है। हम ऐसा आचरण रखें, जो सत्याग्रहीको शोभा दे। इससे दुश्मनी फैलनेके कारण कम होते हैं, दोनों पक्ष अपनी भूलें स्वीकार करने लगते हैं और उन्हें मिटानेका प्रयत्न करते हैं। हम जानते हैं कि रौलट कानून बिल्कुल खराब है। परन्तु इस कारण हम सरकारके विरुद्ध द्वेष रखें, तो यह ठीक नहीं। द्वेष करनेसे हम किसी भी तरह उन खराब कानूनोंकी खराबी अधिक न समझ सकेंगे और न उनके विरुद्ध आन्दोलनमें ही ज्यादा प्रगति कर सकेंगे। उलटे, ऐसे द्वेषसे तो हमारे आन्दोलनकी हानि ही होगी, क्योंकि द्वेषसे भरे होनेके कारण विरोधीकी दलील समझने अथवा उसे पूरा महत्त्व देनेसे हम इनकार करते हैं। ऐसा करके, हमें विरोधीपर जो असर डालना चाहिए, वह डालनेमें हम असमर्थ हो जाते हैं और इस हदतक हम अपनी विजयको असम्भव न सही, ठेलकर दूर अवश्य कर देते हैं। हम जानते हैं कि रौलट कानूनसे हिन्दू, मुसल मान तथा दूसरे लोगोंका जी जितना दुखा है, उससे ज्यादा तुर्की आदिके प्रश्नसे हमारे मुसलमान भाइयोंका जी दुखा है। परन्तु वे अपने दुःखका निवारण द्वेष करके नहीं कर सकेंगे। इन मुसीबतोंका समाधान तो पक्का विचार करने, अपनी माँगें अच्छी तरह तैयार करके घोषित करने और उनपर दृढ़तापूर्वक डटे रहनेसे ही हो सकता है। ऐसा करके ही वे हिन्दू, पारसी और ईसाइयों या सारी दुनियासे मदद ले सकेंगे और अपनी माँगोंको ऐसा बना सकेंगे, जिनका विरोध किया ही न जा सके। रौलट कानूनके कारण या इस्लामके अथवा अन्य किसी प्रश्नके कारण हम सरकारके प्रति क्रोध करें अथवा द्वेष-बुद्धि रखें और ऐसा करके हिंसाका आश्रय लें, तो संसारके लोकमतकी बात तो अलग रही, भारतीय लोकमतको संगठित करनेकी शक्ति भी हममें नहीं रहेगी। अंग्रेजोंके और हमारे बीचका अन्तर और बढ़ेगा और हम अपने ध्येयसे दूर चले जायेंगे । हिंसासे प्राप्त की हुई विजय पराजय जैसी ही है, क्योंकि वह थोड़े समय ही टिकती है। उससे दोनों पक्षोंमें द्वेषकी ही वृद्धि होती है। दोनों पक्ष एक-दूसरेसे लड़नेकी ही तैयारी करते रहते हैं। सत्याग्रहका अन्त इतना दुर्भाग्यपूर्ण नहीं होता । सत्याग्रही तो अपने सिद्धान्तोंकी खातिर कष्ट-सहन करके सारी दुनियाकी हमदर्दी अपनी तरफ खींचता है और अपने कथित शत्रुके हृदयपर भी असर डालता है। अहमदाबाद और वीरमगाँवमें हमने भूलें न की होतीं, तो आन्दोलनका इतिहास और ही होता । अंग्रेजोंके और हमारे बीच द्वेषभावमें वृद्धि न हुई होती। हमारे आसपास जो सैनिक-व्यवस्था दिखाई दे रही है, वह न दीखती और इतने पर भी रौलट कानून हटवानेका हमारा संकल्प उतना ही दृढ़ रहा होता । उसके विरुद्ध हमारा आन्दोलन बहुत आगे बढ़ गया होता और कदाचित् अबतक तो हम विजय-सम्पादन करके भी बैठ गये होते । साथ-ही-साथ यह परिणाम भी आया होता कि हमारे और अंग्रेजोंके बीचकी खाई पट जाती। फिर भी अभी कोई देर नहीं हुई है। हम अपनी भूलें सुधार सकते हैं। भूलें सुधारनेका अर्थ है, क्रोधपर काबू पा लेना, अंग्रेजोंके प्रति द्वेष-बुद्धि निर्मूल करनेका प्रयत्न करना