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सत्याग्रह माला - १८

कर सकते हैं। किन्तु इस प्रसिद्ध पत्रकी सबसे अधिक दुःखदायी आलोचना तो यह है कि उसने हमारी शान्तिवृत्तिका गलत अर्थ लगाकर उससे निष्कर्ष निकाला है कि श्री हॉनिमैनके विछोहसे हमें कोई दुःख नहीं हुआ है। हम रविवारको शान्तिपूर्ण तरीकेसे पूरी हड़ताल रखकर और पूरा दिन सच्चे हृदयसे धार्मिक चिन्तन-मननमें बिताकर 'टाइम्स ऑफ इंडिया' को उसकी भूल बता सकते हैं।

अब मैं अत्यन्त विनम्र भावसे उस शंकापर विचार करूँगा जो 'भगवद्गीता' के अभिप्रायके सम्बन्ध में कुछ हिन्दू भाइयोंने उठाई है। उनका कहना है कि श्रीकृष्णने 'भगवद्गीता' में अर्जुनको अपने सगे-सम्बन्धियों को मारनेका उपदेश दिया है । इस प्रकार उस ग्रन्थमें हिंसाकी अनुमति दी गई है और उसमें सत्याग्रह बिलकुल नहीं है। अस्तु, 'गीता' कोई ऐतिहासिक कृति नहीं है, वह तो एक महान् धर्म-ग्रन्थ है, जिसमें समस्त धर्मोकी शिक्षाएँ सार-रूपमें दी गई हैं। कविने कुरुक्षेत्र में पाण्डवों और कौरवों के युद्धके अवसरका उपयोग करके हमारे भीतर अच्छाई (पाण्डव) और बुराई (कौरव) के बीच जो संघर्ष चल रहा है, उसकी ओर ध्यान दिलाया है। फिर उसने यह दिखाया है कि बुराईको नष्ट कर देना चाहिए और बुराईकी शक्तियोंको अज्ञानवश अच्छाई समझकर उसके विरुद्ध संघर्ष करनेमें किसी प्रकारको शिथिलता नहीं बरतनी चाहिए । इस्लाम, ईसाइयत और यहूदी-धर्ममें इसे खुदा और शैतानकी लड़ाई कहा गया है और जरथुस्ती धर्ममें अहुरमज्द और अहरमनकी । इस सर्वमान्य आध्यात्मिक युद्धको एक क्षणिक सांसारिक संघर्षसे मिलाकर देखना पवित्रको अपवित्र कहने जैसा है। हम लोग, जो 'गीता' की सीखमें सराबोर हैं, किन्तु किसी विशेष आध्यात्मिक उपलब्धिका दावा नहीं करते, अपने सगे-सम्बन्धियोंके अन्याय करने पर उनके विरुद्ध तलवार खींचकर खड़े नहीं हो जाते, बल्कि उन्हें अपने प्रेमसे जीतते हैं। यदि 'गीता' का उक्त स्थूल अर्थ ठीक हो तो हम अपने जिन सगे-सम्बन्धियोंके बारेमें यह मानते हैं कि उन्होंने हमारे साथ अन्याय किया है, उन्हें शारीरिक दण्ड न देकर हम 'गीता' के प्रति अपराध करते हैं। उस दिव्य काव्यमें अर्जुनको दिये गये इस उपदेशका स्वर हम सर्वत्र पाते हैं : 'अर्जुन, तू क्रोध रहित होकर लड़, काम और क्रोध-रूपी दोनों महान् शत्रुओंको जीत, मित्र और शत्रु सबके प्रति समदृष्टि रख, सांसारिक भोग सुख और दुःख मूलक हैं, वे अस्थायी हैं; तू इन द्वन्द्वोंको सहन कर।"[१] सभीका यह अनुभव है कि कोई भी अपने शत्रुको अमर्षके बिना नहीं मार सकता। कोई अर्जुन ही अपने भीतरके असुरको मारकर रागरहित होकर जी सकता है। स्वामी रामदासका लालन-पालन 'गीता' के संस्कारोंके बीच हुआ था। इसलिए उन्होंने एक अन्यायीके प्रहार ही नहीं सहे, बल्कि उसे जागीर भी दिलवाई। गुजरातके प्रथम कवि और परम वैष्णव नरसिंह मेहता भी 'भगवद्गीता' के उपदेशोंमें दीक्षित हुए थे। उन्होंने अपने शत्रुओंको केवल प्रेमसे जीता और अपने एक अनुपम पदमें अपने वैष्णव बन्धुओंके आचरणके लिए सूत्र प्रस्तुत कर दिया । 'भगवद्गीता' से हिंसाकी प्रेरणा लेनेका तो

एक ही अर्थ निकल सकता है कि घोर कलियुग आ गया है। यह बिलकुल सच है

  1. १. मूलमें ये पंक्तियाँ रेखांकित हैं।