पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 15.pdf/३३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।



३००
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


करोड़की आबादी है । इस तरह प्रत्येक व्यक्ति औसतन [ प्रतिवर्ष ] अपने दो रुपये विदेशी कपड़ेपर फेंक देता है । हिन्दुस्तानमें तीन करोड़ व्यक्ति तो ऐसे हैं जिन्हें एक ही वक्त खानेको मिलता है । मेरी समझमें पहले यह स्थिति न थी, और कारण यही है कि पहले हमारे घरोंमें हमारी माताएँ और बहनें सूत कातती थीं । उससे हिन्दकी लाज और मानकी रक्षा होती थी। लेकिन अब यह काम मिलें करती हैं । बम्बई क्षेत्रके बाहर तो स्त्रियाँ इस समय स्वदेशी व्रतका पालन कर रही हैं। मद्रास, बंगाल और अन्य प्रदेशोंमें स्त्रियोंके वस्त्र देशी बुनकरोंके तैयार किये होते हैं । किन्तु बम्बई क्षेत्रमें स्त्रियाँ अधिकतर विदेशके बने हुए महँगे वस्त्र पहनती हैं। इसके लिए पुरुष ही दोषी हैं। पुरुष स्त्रियोंको विदेशी मालके विषयमें बताते हैं और वह पहनने लायक है, ऐसा समझाते हैं । इसीसे स्त्रियोंने यह भूल अपना ली है। लेकिन अब अपनी भूल सुधारी जानी चाहिए। विदेशी कलाकी खातिर हमें अपनी कलाको फेंक नहीं देना चाहिए । इस सबके बुरे परिणाम निकले हैं । अब हिन्दुस्तानको इन परिणामोंसे मुक्त करनेकी आवश्यकता है। हमारे देशकी आबोहवा चाहे कितनी भी बुरी क्यों न हो, हम कुछ इस कारणसे उसे छोड़कर नहीं चले जाते । देशमें तैयार किया गया कपड़ा चाहे कितना ही मोटा क्यों न हो, हमें उसे प्रेमपूर्वक पह्नना चाहिए । धीरे-धीरे हमारी आँखें उसे देखनेकी अभ्यस्त हो जायेंगी । हमें अपनी आत्माको सुन्दर बनाना है; बाहरका ठाठबाट नहीं चाहिए।

इसके अतिरिक्त हमारा देश कंगाल है । देशमें समय-समयपर अकाल पड़ता है । प्लेग और हैजा तो बने ही रहते हैं । हमारा देश जब सचमुच समृद्ध हो और तब हम समृद्धिका उपभोग करें तो वह उचित माना जायेगा। लेकिन फिलहाल कुछ लोगोंको तन ढाँकने-भरको भी वस्त्र नहीं मिल सकते । याद रखिये कि यदि अभी हम [ स्वेच्छासे ] यह कार्य प्रारम्भ नहीं करेंगे तो हमें भविष्यमें विवश होकर इसे करना पड़ेगा । यदि हम अपने कर्त्तव्यसे विमुख होंगे तो हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ इसपर अफसोस प्रकट करेंगी । हमारा देश और भी गरीब हो जायेगा । इसलिए यदि हम यह न चाहते हों कि देश और गरीब हो जाये तो चाहे कितना ही मोटा वस्त्र क्यों न हो, आप स्वदेशी व्रतका पालन करते हुए उसी वस्त्रको पहनें। हिन्दुस्तानमें, एक समय ढाकाकी मलमल [का थान] एक डिबिया में समा जाता था, और इतना पतला होनेपर भी वह तन ढाँकनेमें समर्थ होता था । कहाँ हैं वैसे काम करनेवाले और बुननेवाले ? यह मलमल किसी मशीनसे नहीं बनती थी। फिर वे कारीगर आज असमर्थ कैसे हो गये हैं ? आज तो वे बचे ही नहीं हैं । अब जो विदेशी झीने वस्त्र मिलते हैं वे नाम मात्रके वस्त्र हैं। उनसे तन नहीं ढका जा सकता। सब लोगोंके स्वदेशी व्रत लेनेपर हम फिरसे वैसी मलमल बना सकेंगे। ऐसे अनेक पुरुष हैं जो स्त्रियोंके वशमें हैं। यह मेरा अनुभव है और सभी लोगोंका है। लेकिन मैं स्त्रियोंमें दृढ़ता, धर्मवृत्ति और देशप्रेमका आकांक्षी हूँ । दक्षिण आफ्रिकामें लड़ाईके समय बोअर स्त्रियोंने अनुपम उत्साहका परिचय दिया था। इस समय मैं जो माँग कर रहा हूँ, वह बहुत ही छोटी है । मैं चाहता हूँ कि आप अपने विदेशी वस्त्रोंको फेंक दें अथवा जिन्होंने स्वदेशी व्रत धारण न किया हो उन्हें दे दें । मैं चाहता हूँ कि सभी बहनें ऐसा करें। आज इसी समय सब अथवा कुछ बहनें इस व्रतकी ले लें, ऐसा