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२८६. पत्र : साकरलाल दवेको



बम्बई जाते हुए रेलगाड़ीमें,
मई १९, १९१९

भाई श्री साकरलाल,[१]

मैं आपको पत्र जितनी जल्दी लिखना चाहता था उतनी जल्दी नहीं लिख सका । मैं भाई अमृतलालकी तलाशमें हूँ । मुझे यह भरोसा है कि जून मासमें मामा वहाँ पहुँच जायेंगे और वे ठीक तरह काम करेंगे, ऐसी मेरी मान्यता है । इस पाठशालाको अच्छी तरहसे चलानेकी शक्ति हममें आनी ही चाहिए।

आपने जो व्याकरण-दोष बताये हैं, उनसे तो मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ । इस बारेमें भाई महादेव आपको और अधिक लिखेंगे। मैं शुद्ध भाषा लिखनेका खूब प्रयत्न तो करता हूँ परन्तु दोषोंका रह जाना सर्वथा संभव है । क्योंकि गुजरातीपर मुझे थोड़ा- बहुत जो अधिकार प्राप्त है वह केवल प्रेमसे प्राप्त किया हुआ है। मुझे भाषा-ज्ञानके विकासका तो अवसर ही नहीं मिला । 'शक्’ धातुका प्रयोग जान-बूझकर किया गया प्रयोग है । 'निर्भय' आदि शब्दोंके प्रयोग जान-बूझकर नहीं किये गये हैं, परन्तु भाई महादेव उन प्रयोगोंका समर्थन करते जान पड़ते हैं। आप दोनों जिस निर्णयपर पहुँचेंगे, उसे मानकर में सुधार कर लूँगा । जहाँ आप दोनोंके बीच मतभेद होगा, वहाँ जबतक मुझे अधिक ज्ञान प्राप्त नहीं हो जायेगा, तबतक आपका निर्णय मानूँगा, क्योंकि मेरे खयालसे आपके निर्णयमें अधिक तटस्थता होगी। आप मेरी भाषामें सुधार सुझाते रहिये; इसे मैं [ अपने प्रति आपके ] निर्मल प्रेमकी निशानी समझँगा ।

अब 'भगवद्गीता' के बारेमें : मैंने उसका जो अर्थ किया है, वह मैंने उसमें स्वतंत्र रूपमें न पाया होता तो मैं जरूर यह कहता कि यद्यपि 'भगवद्गीता' सत्याग्रहके सिद्धां- तके विरुद्ध है, फिर भी वही सिद्धान्त सच्चा है । 'भगवद्गीता' का बहुत ही दुरुपयोग किया जाता है, इसीलिए मैंने कुछ वर्षोंसे जो अर्थ स्वीकार कर रखा है, उस अर्थको उपयुक्त समय आनेपर अब मैं लोगोंके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

आनन्दशंकर भाईकी रायकी में बड़ी इज्जत करता हूँ। तथापि यदि वे भी मेरे मतके विरुद्ध हों, तो भी में अपने परखे हुए मतको हरगिज नहीं छोडूंगा । फलकी आसक्ति रखे बिना कर्म करते रहना 'भगवद्गीता' का आशय जरूर है । मैं उसीमें से सत्याग्रह निकाल लेता हूँ। जो फलपर आसक्ति नहीं रखता, वह दूसरेकी हत्या नहीं करेगा, अपनी आहुति दे देगा। दूसरेकी हत्या में अधीरता है और अधीरतामें आसक्ति होती है । यह तो मैंने अपनी दलीलों [ के धाराप्रवाह ] में से आपको एक बूंद मात्र ही दी है। मगर दलीलोंसे मैं आपको या किसीको भी समझाना नहीं चाहता। चाहूँ भी तो मुझमें वह शक्ति है, यह मैं नहीं मानता। मेरे पास इससे कहीं अधिक प्रबल शक्ति है, और वह अनुभवकी है । सन् १८८९ में मैंने 'गीता' का प्रथम अनुभव प्राप्त

  1. साकरलाल अमृतलाल दवे, एक गुजराती शिक्षाविद् ।
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