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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


किया, तभी मैंने उसमें सत्याग्रहकी झाँकी देखी और ज्यों-ज्यों मैं 'गीता' को अधिक पढ़ता गया, त्यों-त्यों झाँकीके स्थानपर मुझे उसमें सत्याग्रहके स्पष्ट दर्शन हुए। स्थूल अर्जुनको समझानेके लिए कृष्ण-जैसा चतुर मनुष्य 'गीता' का ज्ञान बहा दे, यह तो चमड़ेकी रस्सीके लिए भैंस मारनेके समान होगा। यह मान्यता, यदि कृष्ण परमात्मा हैं तो उन्हें लांछित करनेवाली है और अर्जुन यदि अनुभवी और विवेकी योद्धा हो तो उसके प्रति अन्याय करनेवाली है ।

आप इन विचारोंको सहज ही दरगुजर नहीं करेंगे इसका तो मुझे पूरा विश्वास है । लेकिन मैं चाहूँगा कि आप इनपर विचार करें और इनका विकास करें। यह तो आप सहज ही स्वीकार करेंगे कि विद्वत्तापूर्ण आलोचनाका मूल्य अनुभवके आगे- ही वह अनुभव किसी अल्पबुद्धि व्यक्तिका भी क्यों न हो - बहुत ही थोड़ा है।

[ गुजरातीसे ]
महादेवभाईनी डायरी,'"" खण्ड ५

२८७. पत्र : मणिबेन परीखको

बम्बई जाते हुए रेलगाड़ीमें
मई १९, १९१९

प्रिय मणिबेन,

आपके पिताजीका स्वर्गवास हो गया, यह मैंने कल सुना; परन्तु आपको दिलासा देने न आ सका। प्रियजनोंका वियोग तो सदा दुःखदायी होता ही है। कारण कि “देहीके स्नेही सकल स्वार्थी, अन्त साथ ना आयेंगे " ऐसा हमारे एक कविने गाया है । उसका नाम तो मैं भूल गया हूँ । गहराईमें उतरकर देखें, तो दुःख देनेवाली चीज हमारा प्रेम नहीं, बल्कि स्वार्थ है । यदि ऐसा न हो, तब तो जैसे जीर्ण हुए मकानको छोड़कर नये मकान में जाते समय हमें आनन्द होता है, वैसे ही जीर्ण शरीरको छोड़कर एक मित्र-आत्मा के नई देह धारण करनेमें क्या शोक हो सकता है ? यह बात छोटी या बड़ी उम्र में मरनेवाले सभीपर लागू होती । कोई शरीर कब निकम्मा हो जाता है, यह तो उसे बनानेवाला ही जाने; यह जाननेका हमें अधिकार नहीं है । परन्तु मेरा आपसे ये सब बातें कहनेका विचार नहीं था । इस समय मेरा मन दूसरी ही दिशामें बह रहा है, इसलिए इतना लिख गया। मुझे कहना तो यह है : जैसी भव्य मृत्यु आपके पिताजीकी हुई है, वैसी सभीकी हो, यह हमारे लिए कामना करने योग्य बात है । किसीसे भी सेवा कराये बिना, स्वयं दुःख भोगे बिना, अनायास ही मृत्युको प्राप्त होनेवाले मनुष्य कम ही देखने में आते हैं। ऐसे लोगों में आपके पिताजीकी सदा गिनती होगी । यों तो किसी भी मृत्युका शोक करना बेकार है । पर ऐसी मृत्युका शोक तो हो ही नहीं सकता। इसलिए मैं आपको सान्त्वना नहीं, बधाई देता हूँ ।

[ गुजरातीसे ]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ५