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पत्र : अली भाइयोंको

मेरी समझमें आप जिस उद्देश्यके लिये प्रयत्नशील हैं और मेरी दृष्टिमें मुख्य रूपसे आप जिसकी प्रतिमूर्ति हैं और जिसके लिये आप वर्षोंसे चुपचाप कष्ट झेल रहे हैं, उसे देखते हुए आपका अभ्यावेदन अशोभनीय था । उस अभ्यावेदनमें प्रयुक्त भाषा उत्तेजनापूर्ण थी और उसमें लच्छेदार शब्दोंकी जैसी भरमार थी उसे एक अभ्यावेदनके योग्य नहीं कहा जा सकता। आपने उसमें मुसलमानोंकी ओरसे जो माँगे रखी हैं उन्हें होना तो ऐसा चाहिए था कि उनमें से कुछ भी कम न किया जा सके, मगर वे जरूरतसे ज्यादा हैं। मुझे विश्वास है कि आप उन समस्याओंसे सम्बन्धित प्रश्नोंको फिरसे नहीं उठाना चाहते जिन्हें, सही अथवा गलत ढंगसे, महायुद्धसे पहले हल किया जा चुका है। अलबत्ता आपको यह हक जरूर है कि आप महायुद्धके प्रारम्भ होनेके समय इस्लाम धर्मको जो धर्मेतर राजनैतिक पद प्राप्त था उसकी पुनर्प्रतिष्ठाकी माँग करें। कुछ देरी तो हो गई है; किन्तु मैं चाहता हूँ कि आप फिरसे अपना अभ्यावेदन लिखें । उसे ऐसे तर्कबद्ध सुसंगत ढंगसे प्रस्तुत करें कि वह बरबस संसारका ध्यान आकृष्ट कर ले | यह तो ठीक है कि किसी भी अनुष्ठानकी सफलता अन्ततोगत्वा ईश्वरकी इच्छापर निर्भर रहती है; परन्तु ईश्वरेच्छापर बहुत हदतक उस सर्वशक्ति-मान्के निकट जानेवाले बन्देके आचरणोंका असर पड़ता है और वहाँ तो विनय और संयमसे पवित्र अनासक्त ठंडे दिमागके सिवा और कुछ कारगर नहीं होता । में तो इस नये अभ्यावेदनमें व्यक्तिगत कष्टोंका कतई जिक्र न करूँ । आपका जीवन्त आत्मबलिदान सामने है और स्वयं बोलता है। यदि आपको मेरा सुझाव मान्य है तो मैं आपके अभ्यावेदनको फिरसे लिख डालनेके लिए तैयार हूँ ।

दो अन्य बातें जिनपर मेरा आपसे मतभेद है, आपके वे दो पत्र हैं जिन्हें आपने समाचारपत्रोंमें प्रकाशनार्थ भेजा था। अब आप समझ गये होंगे कि मैंने आपके पहले पत्रका प्रकाशन क्यों रोक दिया । दूसरे पत्रको भी, जो अभी-अभी मिला है, उन्हीं कारणोंसे रोक लिया है। इस पत्रको प्रकाशित न करनेका एक कारण यह भी है कि उसमें आपके द्वारा की गई श्री नाज़िमकी सिफारिश बेजा है । जब परीक्षाका समय आया तब उन्होंने सत्यका नहीं, असत्यका साथ दिया। मुझे उनसे सहानुभूति है, परन्तु मैं आपके इस विचारसे सहमत नहीं हूँ कि अधिकारियोंने जो कदम उठाया वह अनुचित था। उनपर आरोप लगाया गया तब उन्होंने जान-बूझकर झूठा वक्तव्य दिया। उनका कर्त्तव्य था कि वे सही वक्तव्य देते। इस दुखद घटनाकी पूरी तफसील में जाकर मैं आपको परेशान नहीं करना चाहता ।

मुझे यह भी स्वीकार करना चाहिए कि नजरबन्दीके हुक्मकी आपकी आधी अवज्ञा मुझे अच्छी नहीं लगी। मुझे मालूम नहीं कि बम्बईमें मेरी रिहाईपर मैंने जो सन्देश आपके लिए भेजा था वह आपको मिला या नहीं । मैंने कहा था कि आप नजरबन्दीके हुक्मकी अवज्ञा न करें। मैं चाहूँगा कि अगर आपसे बने तो हुक्मउदूली सम्बन्धी अपनी सूचना वापस ले लें और वाइसरायसे कहें कि और गहराईसे सोचने पर और उस लक्ष्यके हितको देखते हुए, जिसको लेकर आप चले हैं, आपने फिलहाल आज्ञाको भंग न करनेका निश्चय किया है ।