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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विचार-विमर्श न करे कि उससे उपद्रव फैले । आप सरकारको उनकी गलतियाँ बता सकते हैं।

सवाल बराबर तरीकेका ही है और देखना यह है कि उन (लेखों) का उद्देश्य क्या जान पड़ता है-लोगोंके सद्विवेकको जगाकर उन्हें सही स्थितिसे अवगत कराना या उन्हें राजद्रोहपर उतर आनेके लिए क्षुब्ध और उत्तेजित करना। दूसरे शब्दोंमें, उनमें लोगोंकी बुद्धिको झकझोरनेकी कोशिश की गई है या जोशको उभारनेकी ।

अदालतके सामने जो कसौटी थी, उसकी दृष्टिसे देखनेपर ज्ञात होता है कि जिन लेखोंके विरुद्ध शिकायत की गई, वे दिये गये दण्डका औचित्य सिद्ध नहीं करते । उनसे उपद्रव फैलने का सवाल ही नहीं उठता। क्योंकि लेखक तो एक अत्यन्त तनावपूर्ण अवधि में भी पाठकोंसे रोज-रोज यही कह रहा है कि हिंसासे हाथ समेटे रहिए, फसाद होनेसे आपके उद्देश्यकी सिर्फ हानि ही हो सकती है। लेखक पाठकोंसे यह कहता है कि पहलेसे ही मामलेके बारेमें कोई धारणा न बना लीजिए, मामलेकी जाँचके परिणामोंको तो सामने आने दीजिए; और वह ऐसी जाँचके लिए [ सरकारसे ] बार-बार आग्रह भी करता है। इस प्रकार हम देखते हैं उसने लगातार अपने पाठकोंके सद्विवेकको ही जगानेकी कोशिश की है। इन लेखों और लेखांशोंपर अदालतने जो तर्क और विचार प्रस्तुत किये हैं, वे उसके निर्णयका औचित्य सिद्ध नहीं करते। अदालतने ६ और ८ अप्रैल अंकों में प्रयुक्त "दिल्लीके शहीद" शब्दोंपर नाराजगी प्रकट की है। मगर आप शीर्षकोंके नीचे दी सामग्रीको पढ़ें तो देखेंगे कि एकका सम्बन्ध जामा मस्जिदमें की गई एक इबादतसे है और दूसरेका एक सहायता और स्मारक-कोषसे । अदालतके शब्दोंमें अपराध यह था कि "अभियुक्तने ज्यादा जोर सहायता पर न देकर शहीदोंका स्मारक बनानेकी बातपर दिया । "आगे अदालत कहती है कि" इससे जो निष्कर्ष निकलता है वह स्पष्ट है ।" इससे स्पष्ट निष्कर्ष यह निकलता है कि जिस किसीने यह शीर्षक दिया, उसे ऐसा लगा कि जिन लोगोंको दिल्लीमें गोलियोंका शिकार बनाया गया, उनके साथ यह व्यवहार बिना किसी पर्याप्त कारणके ही किया गया। अब इस निष्कर्षको राजद्रोहात्मक क्यों माना जाये, यह बात तो समझमें नहीं आती। और यदि ऐसे निष्कर्षसे यह प्रकट होता हो, जैसा कि इस मामलेमें निःसन्देह होता है, कि जिस मजिस्ट्रेटने गोली चलानेका हुक्म दिया उसने गलत किया तो क्या यह कोई ऐसा निष्कर्ष है जिसके लिए इस निष्कर्षपर पहुँचनेवालेको सजा दी जानी चाहिए। अदालत कहती है कि कोई चाहे तो सरकारकी गलतियाँ बता सकता है । मेरी नम्र सम्मति है कि श्री रायने एक स्थानीय अधिकारीकी गलती बताकर बिल्कुल ठीक किया। (प्रसंगवश में यह बता दूँ कि फैसलेमें उल्लिखित “दिल्लीके शहीदोंका स्मारक" शीर्षकसे कोई भी सम्पादकीय प्रकाशित नहीं हुआ । ) दूसरा अभियोग यह है कि सम्पादकने कुछ अवैतनिक मजिस्ट्रेटों और म्यूनिसिपल कमिश्नरोंके बारेमें जिन्होंने दुकानदारोंको दुकानें बन्द करनेसे मना किया था, "उल्लू बनाना"