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भाषण : बम्बई में

आगे चलकर श्री गांधीने कहा कि स्वदेशीके महत्त्वके सम्बन्धमें दो मत नहीं हैं । वह हवा, पानी और खुराककी तरह ही दैनिक जीवनकी एक आवश्यकता है। इस कथनकी सत्यताका अनुभव उसी हालतमें किया जा सकता है जब स्वदेशीको धार्मिक भावनासे देखा जाये । संसारका कोई भी राष्ट्र स्वदेशीको जीवन-सिद्धान्तकी तरह अपनाये बिना ऊँचा नहीं उठा । स्वदेशीकी आवश्यकता तथा उसके महत्त्वपर और अधिक कहना हमारे प्रयोजनसे परे है। मैं तो इस सम्बन्धमें कि स्वदेशीकी भावना किस तरहसे कार्यान्वित की जा सकती है और वह कैसे प्रगति कर सकती है कुछ सुझाव ही देना चाहता हूँ ।

पहला सुझाव तो यह है कि व्यक्तिको अपनी सीमाएँ समझ लेनी चाहिए। देशकी वर्तमान दुर्भाग्यपूर्ण परतन्त्रताको अवस्थामें इस सिद्धान्तको केवल वस्त्रोंतक ही सीमित रखा जा सकता है । भारतमें तन ढकनेके लिए आवश्यक कपड़ेका केवल २५ प्रतिशत उत्पादन होता है। इसलिए हमारा मुख्य कर्त्तव्य अधिक कपड़ेका उत्पादन करना है । व्यापारी वर्गके सभी उपस्थित सदस्योंसे में अधिकसे-अधिक जोर देकर यह कहना चाहता कि शुद्ध स्वदेशी कपड़ेका पर्याप्त मात्रामें उत्पादन किये बिना आपका निस्तार सम्भव नहीं है। इसलिए मैं आशा करता हूँ कि जिनके पास धन है और जिनके पास विशिष्ट ज्ञान है, वे अपना धन और ज्ञान देशके कामके लिए अर्पित करेंगे ।

उन्होंने उपस्थित लोगोंसे उस गुजरे हुए जमानेकी बात सोचनेको कहा जब बिना किसी प्रयत्नके स्वदेशीका प्रचलन था, उतना ही अनायास जैसे कोई साँस लेता या पानी पीता है। गांधीजीने श्रोताओंसे फिर इसे सम्भव बनानेपर विचार करनेको कहा कि यह एक बहुत ही सादे और अत्यन्त सफल यन्त्र, करघेसे सम्भव है। उन्होंने कहा कि मैं कदापि यह नहीं मान सकता कि प्रतिभा और साहसपूर्ण कार्योंका इजारा यूरोपका ही है । जब अन्य देश बिलकुल ही आदिम ढंगकी जिन्दगी बसर कर रहे थे, जब उन्हें पेड़ोंकी छालों या जानवरोंकी खालोंसे बेहतर कुछ पहरावा नसीब नहीं था, तब भारतीयोंने कपासकी उपज करके रुईसे सूत कातने और फिर उसका कपड़ा बनानेकी अविष्कार कर लिया था। मेरा विश्वास है कि जिस व्यक्तिने सादे चरखे और करघेका निर्माण किया था उसकी प्रतिभा उस व्यक्तिसे कहीं अधिक थी जिसने शक्ति-संचालित तकुओं और करघोंका निर्माण किया है ।

गांधीजीने कहा कि मुझे आपसे यह कहते हुए हर्ष हो रहा है कि पंजाबमें आज भी हजारों औरतें, ऊँचे-ऊँचे घरानोंकी औरतें भी अपने-अपने घरोंमें सूत कातती हैं। मुझे स्वयं एक ऐसी पंजाबी महिलाकी स्वेच्छया सेवा प्राप्त हो गई है और वे बम्बई में अपने ही निवास स्थानपर एक कताई की कक्षा चला रही हैं। उन्होंने प्रभावकारी ढंगसे चरखेकी मनोहर गुनगुनाहटका उल्लेख करते हुए कहा कि आजकल मुझे चरखेका यह गान सुनने का सौभाग्य प्राप्त है । आप लोग भी इसका रसास्वादन कीजिए और इस बातकी यथार्थताका अनुभव कीजिए कि कहाँ चरखेका यह मधुर गान और कहाँ आधुनिक कारखानों के