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३६९. भाषण : बम्बई में स्वदेशीपर[१]

जून २८, १९१९

स्वदेशीका विषय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है और उसमें देशकी धार्मिक उन्नति निहित है । जो देश स्वदेशीका त्याग करता है, उस देशके लोग स्वदेशाभिमानी नहीं कहे जा सकते और वे किसी तरह भी अपने धर्मका पालन नहीं कर सकते । हमें यह बात अपने धर्मशास्त्रों में नहीं दिखाई देती और इसके विपरीत यह निष्कर्ष भी निकाला जाता है कि धर्म-पालनमें देशभक्ति भी बाधा रूप हो सकती है। किन्तु यह बात बिलकुल बेतुकी है और भ्रान्तिमें डालनेवाली है । प्रत्येक व्यक्तिको अपने कर्त्तव्यका खयाल करना चाहिए और उसका खयाल न करनेसे कर्म-पथमें गड़बड़ी होती है। श्रावक-धर्म में अन्य किसी भी धर्मकी अपेक्षा कर्म-पथका स्वरूप बहुत ही सूक्ष्म रीतिसे समझाया गया है और यहाँ जो भाई इकट्ठे हुए हैं, उनको उसे समझानेकी आवश्यकता नहीं है । जिनका जन्म भारत-भूमिमें हुआ है, उनके लिए इसका कोई कारण तो होना चाहिए। इस कारणसे हमें यह समझना चाहिए कि हमारा विशेष कर्त्तव्य क्या है । स्वदेशी एक विशेष कर्त्तव्य है और वह धर्मके अन्तर्गत आता है । जैन धर्म में जीव-दया और अहिंसाकी शिक्षा दी गई है; इतना ही नहीं उसमें यह शिक्षा भी दी गई है कि [विषैले ] कीटाणुओंसे हिंसक प्राणियोंकी भी रक्षा करनी चाहिए । किन्तु इससे हमें मनुष्योंके प्रति अहिंसा-भाव भुला देनेकी जरूरत नहीं है । यदि हमारे पड़ोसी किसी कष्टसे पीड़ित हों या संकटग्रस्त हों तो उनके दुःखमें भाग लेकर उनकी सहायता करना हमारा कर्त्तव्य है । समस्त संसारमें धर्मकी भावना इतनी गौण हो गई है कि धर्मके नामपर अधर्म फैल रहा है और मनुष्य स्वयं अपनी अन्तरात्मा- को ठग रहा है। कने में आता है कि हम धर्मका पालन करते हैं, जब कि प्रवृत्ति अधर्म में होती है । अधर्मसे रुपया कमाकर उसे धर्म-कार्यमें दान करनेसे यह नहीं कहा जा सकता कि धर्मका पालन हो गया । यहाँ बहुतसे व्यापारी-वृत्तिके लोग इकट्ठे हुए हैं । हमें यह कहा जाता है कि व्यापारमें बेईमानी किये बिना काम चल ही नहीं सकता । मैं स्पष्ट शब्दों में कहता हूँ कि यदि बेईमानीके बिना व्यापार नहीं किया जा सकता तो आप उसे छोड़ दें। हमारा धर्म तो यह है कि हम चाहे भूखों मर जायें, किन्तु धर्मका त्याग न करें और जबतक हम ऐसा नहीं करते तबतक धर्म हमारे जीवनका आधार नहीं हो सकता ।

मेरे लिए एक दुखदायी बात कहना आवश्यक हो गया है। और वह यह है कि हमारे धर्मगुरु जिनका कर्त्तव्य ज्ञान आदि देना है, अपना कर्त्तव्य भुला बैठे हैं। यह बात चाहे कितनी ही दुःखदायी क्यों न हो फिर भी सत्य है । धर्म-गुरु अपने आचरणसे अपने अनुयायियों का मार्गदर्शन कर सकते हैं। केवल उपदेश देनेसे श्रोताओंपर प्रभाव नहीं पड़ता । गुरुओं को भी स्वदेशी-धर्मपर आचरण करना चाहिए। उन्हें तो खाली समय बहुत मिलता

 
  1. यह सभा कच्छी जैन-मण्डलके तत्वावधानमें लालबागके जैन उपाश्रयमें की गई थी।