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भाषण : अहमदाबादमें स्वदेशीपर

सन् १९०८ से मुझे ऐसा लग रहा है कि इसके लिए किये जानेवाले प्रयोगका श्री गणेश कपड़े से ही कर सकेंगे। एक समय ऐसा था कि भारत संसारके सभी देशोंसे अधिक उन्नत था । उस समय भारतमें किस प्रकारकी व्यवस्था थी, यदि हम इसपर ठीक-ठीक विचार करें तो इस प्रयोगके अन्तमें इस लक्ष्यकी प्राप्तिका मार्ग प्रशस्त हो जायेगा ।

भारतकी आबादी मोटे तौरपर दो भागों में बँटी हुई थी-कुछ लोग खेती करते थे और कुछ बुनाईका काम करते थे । इससे भी आगे बढ़ें तो कह सकते हैं कि खेतीका काम करनेवाले लोग भी उससे अवकाश पानेपर बुनाईके काममें लगे रहते थे । मैं यह बात बहनोंको सम्बोधित करके कहता हूँ क्योंकि इस धन्धेकी उन्नति उन्हींपर निर्भर है। आप डॉ० हैरॉल्ड मैनसे[१] अपरिचित नहीं हैं । उन्होंने पूनाके आसपास के गाँवों [ की अवस्था ] का अध्ययन करके दो पुस्तकें प्रकाशित की हैं। अपने पर्यवेक्षणके आधारपर उन्होंने यह सिद्ध किया है कि किसान लोग आषाढ़से मार्गशीर्ष तक छः महीनेका समय व्यर्थं खोते हैं । उस फालतू समयमें ये किसान लोग ही बुनाईका काम अपने हाथमें ले सकते हैं । बुनाईका धन्धा मिट जानेसे ८० प्रतिशत लोग निरुद्यमी हो जाते हैं और उनमें आलस्य बढ़ता जाता है । किन्तु लोग स्वयं ही आलस्यमें पड़े रहते हैं, ऐसी बात नहीं है, उन्हें ऐसे धन्धे करनेका अवसर ही नहीं दिया जाता। यदि यह कहा जाये कि किसानोंपर पहलेकी अपेक्षा लगान बहुत बढ़ा दिया गया है तो मैं इस बातको स्वीकार करूँगा किन्तु इससे उनका बेकार बैठे रहना तो उचित नहीं ठहरता ।

१९१७-१८ के दौरान भारतमें विदेशोंसे ७ करोड़ रुपयेके कपड़ेका आयात किया गया था । यह हालत उस देशकी है जो किसी समय वैभव सम्पन्न था और बहुत बड़े पैमाने पर विदेशोंको माल निर्यात किया करता था । ६० करोड़ रुपयेका माल तो यहाँ १९१७-१८ में आया, किन्तु यदि लड़ाई न चल रही होती और जहाजोंका आना-जाना जारी रहता तो ६० करोड़की इस संख्या में कितनी वृद्धि हो जाती; यह बात विचारणीय है ।

आज तो लोगोंको अँगरखा, बंडी, साफा या धोती जैसे अत्यन्त जरूरी कपड़ोंसे वंचित रहना पड़ता है और वे तीन या चार कपड़ोंकी जगह केवल एक ही से काम चला लेते हैं। मैंने एक ऐसे ही आदमीसे इसका कारण पूछा तो उसने कहा : "इसके लिए पाँच या सात रुपये खर्चनेके लिए कहाँसे लायें ?" यह विदेशी कपड़ेको काममें लानेका ही नतीजा है।

नष्टप्रायः धन्धोंको पुनरुज्जीवित करना इस संस्थाका लक्ष्य है और उद्देश्यकी प्राप्ति के लिये तजुर्बे के तौरपर इसकी शुरूआत वस्त्र उत्पादनके आन्दोलनसे की गई है । और कपड़े से ही आरम्भ किया भी जा सकता है । उसके बाद एक बात यह रखी गई कि लोगोंको प्रतिज्ञा लेनी चाहिए। अनुकूलताकी दृष्टिसे इस प्रतिज्ञाके तीन भाग किये गये हैं। एक शुद्ध, दूसरा मिश्रित और तीसरा यह है कि भविष्यमें जो भी नया कपड़ा खरीदा जाये वह स्वदेशी हो । सत्य तो यह है कि प्रतिज्ञा लेनेके बाद विदेशी

 
  1. पूना कृषि कॉलेजके; लैंड ऐंड लेबर इन ए डेकन विलेज पुस्तक के लेखक ।