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सत्याग्रहियोंको हिदायतें

(२) उसके स्वरूपके विषयमें मेरा विचार यह है कि मैं उसे जुलाईके आरम्भमें किसी समय, मेरे खिलाफ अमुक प्रदेश [ बम्बई ] में ही रहने और अमुक प्रदेश [ दिल्ली और पंजाब ] में प्रवेश न करनेके जो आदेश हैं, उनकी अवज्ञा करके करूँगा ।

(३) मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमारी सफलता इस बातमें है कि मुझे जेलकी सजा होनेपर सजा जिस समय दी जाये, उस समय, उसके बाद और मेरे जेल-निवासके दरम्यान देशकी जनता पूरी शान्ति और आत्म-संयमका पालन करे । रौलट कानूनको रद करानेका यही सर्वोत्तम उपाय होगा ।

(४) इसलिए मेरा अनुरोध है कि मुझे जेलकी सजा होनेपर किसी भी तरहका प्रदर्शन, हड़ताल या सार्वजनिक सभायें आदि नहीं होनी चाहिए ।

(५) मेरा यह अनुरोध भी है कि दूसरे लोग मुझे जेलकी सजा होनेके दिनसे कमसे कम एक माहतक [ कानूनकी ] सविनय अवज्ञा न करें। यह एक माह सजा होनेके दिनसे गिना जाये, न कि गिरफ्तारीके या सरकार द्वारा [मेरे सम्बन्धमें ] ऐसे ही किसी अन्य अन्तिम निर्णयके दिनसे ।

(६) यह एक माह सविनय अवज्ञाके लिए आवश्यक तालीम हासिल करने और तैयारी करनेका काल माना जाये और उसका उपयोग निम्नलिखित रचनात्मक कार्योंके लिए किया जाये। यह सलाह देते हुए मैंने यह मान लिया है कि मुझे जेलकी सजा होने के बाद दंगा-फसाद आदि नहीं होंगे।

(क) लोगोंको सत्याग्रहके बुनियादी सिद्धान्तों सत्य और अहिंसाके कठोर, त्रुटिहीन पालनकी और इन्हीं सिद्धान्तोंसे निष्पन्न सविनय अवज्ञाके कर्त्तव्यके पालनकी और विनयहीन अवज्ञाके वर्जनकी शिक्षा दी जाये। जितना महत्त्व सविनय अवज्ञाके पालनका है उतना ही महत्त्व विनयहीन अवज्ञाके वर्जनका है। इस दृष्टिसे लोगों में उपयुक्त साहित्यका, जैसे मेरी लिखी हुई थोरोकृत 'सिविल डिसओबिडियन्स', 'हिन्द स्वराज्य' और 'डिफेंस ऑफ सॉक्रेटिस' आदि पुस्तिकाओंका, टॉल्स्टॉयकी 'लेटर टू रशियन लिबरल्ज़' और रस्किनकी 'सर्वोदय', (अन्टु दिस लास्ट) नामक पुस्तकका, व्यापक प्रचार किया जाये। यह सही है कि सविनय अवज्ञा की योजनाके एक हिस्सेकी तरह हमने ऐसा कुछ साहित्य पहले बेचा था। लेकिन अब हमें पता लगा है कि सरकारको बताया गया है कि निषिद्ध साहित्यको दुबारा छापना और बेचना उसी हालतमें अपराध है जब कि ऐसा साहित्य या कोई भी दूसरा साहित्य खण्ड १२४ (अ) के दायरेमें आता हो; अन्यथा वह अपराध नहीं है। इसलिए अब हम इस साहित्यकी बिक्री अपने प्रचार-अभियानके एक अंगके रूपमें करेंगे; ऐसे कार्यके रूपमें नहीं जिससे हमें कानून-भंगके अपराधमें सजाका भागी होना पड़े ।
(ख) स्वदेशीके सिद्धान्तका तीव्र और साथ ही व्यापक प्रचार किया जाना चाहिए। उसका सन्देश यथासम्भव सारे भारतमें पहुँचा दिया जाना चाहिए। हमारे इस प्रचार कार्य में किसी प्रकारकी कटुता नहीं होनी चाहिए और न ऐसा लगना चाहिए कि उसके बहाने बायकाटका प्रचार किया जा रहा है, क्योंकि स्वदेशीका सिद्धान्त हमारे लिए एक चिरस्थायी आर्थिक, राजनीतिक और यहाँ-