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पत्र : सर जॉर्ज बार्न्सको

जब बीकानेरके महाराजा डोमिनियनोंके राजनयिकोंसे अनुरोध और आशा कर रहे थे कि उपनिवेशोंमें बसे भारतीयोंके साथ उचित और उदार व्यवहार किया जायेगा, ठीक उसी समय दक्षिण आफ्रिकाके अधिकारीगण १९१४ के समझौतेको, जिसमें अगर स्वयं भारत सरकार शामिल नहीं थी तो उसकी साक्षी तो थी ही, तोड़कर ट्रान्सवालके भारतीयोंको उनके निहित अधिकारोंसे वंचित करनेकी योजना तैयार कर रहे थे ।

अब जिस विधेयककी अखबारोंमें चर्चा हो रही है और जो ताजे समाचारोंके अनुसार समिति स्तरको पार कर चुका है, वह ट्रान्सवालके उन भारतीयोंको, जो अबतक कानूनी तौरपर अचल सम्पत्तिपर स्वामित्व कायम रखने में सफल हुए हैं, इस अधिकारसे उसी प्रकार वंचित करता है जिस प्रकार कम्पनियोंके साझेदारों और रेहनदारोंको । इसके अतिरिक्त यह विधेयक उनसे ट्रान्सवाल- भरमें नये व्यापारिक परवाने प्राप्त करनेका अधिकार भी छीन लेता है। इसका मतलब यह हुआ कि अगर अब भारतीय बाशिन्दोंको सुरक्षा प्रदान नहीं की जाती तो उनकी योग्यता चाहे जो हो, वे घरेलू नौकर बनकर रह जायेंगे। प्रवासपर कड़ेसे कड़े प्रतिबन्ध लगाकर नये लोगोंका आना लगभग बन्द कर देना ही काफी बुरा था; लेकिन जिन प्रवासियोंकी कानूनी स्थिति यहाँ स्वीकार कर ली गई है, उन्हें और उनकी सन्तानोंको व्यापार-धंधे और जायदाद सम्बन्धी अधिकारोंसे वंचित करके तो स्थिति असह्य ही बना दी गई है ।

मेरी नम्र सम्मतिमें भारतीयों और भारतमें रहनेवाले अंग्रेजोंका कर्त्तव्य स्पष्ट है । हम इतना प्रबल लोकमत तैयार कर सकते हैं कि मारे शर्मके दक्षिण आफ्रिकाके यूरोपीयोंको सही आचरण करनेपर मजबूर हो जाना पड़े। भारत सरकार ट्रान्सवालमें बसे भारतीयोंके न्यासीके रूपमें उन्हें आसन्न विनाशसे बचानेके लिए जो प्रयत्न करेगी, इसमें हम भी अपना सम्मिलित विरोध प्रकट करके उसके हाथ मजबूत कर सकते हैं ।

आपका,
मो० क० गांधी

[ अंग्रेजीसे ]
बॉम्बे क्रॉनिकल, ४-७-१९१९

३८६. पत्र : सर जॉर्ज बार्द्धको

लैबर्नम रोड
बम्बई
जुलाई ३, १९१९

प्रिय सर जॉर्ज बाज़,[१]

कुछ महीने पहले आपने मुझे यह लिखनेकी कृपा की थी कि आप दक्षिण आफ्रिकी भारतीयोंकी स्थिति के बारेमें पता लगा रहे हैं । तबसे वह बदसे बदतर होती गई है। संलग्न कतरनोंसे आप इसका अनुमान लगा सकेंगे। यदि संलग्न कतरनोंमें

  1. वाइसरायकी कार्यकारिणी परिषद्के सदस्य, जो उद्योग और वाणिज्य विभाग के लिए जिम्मेदार थे।