पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 15.pdf/४८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४५५
भाषण : नडियादकी महिला सभा में स्वदेशीपर

वस्त्र देते हुए पति इस आशयके कुछ शब्द बोलता था : "ये वस्त्र कुलदेवीने काते हैं; मैं तुम्हें देता हूँ और तुम तथा मैं इन्हें पहनकर सुखी हों।" शास्त्रोंमें ऐसे श्लोक हैं; लेकिन उनकी अभी यहाँ आवश्यकता नहीं है ।

पंजाब में हमारी बहनें हैं। जो बहनें यह मानती हैं कि गुजरात और नडियाद ही पूरा देश नहीं बल्कि पूरा देश तो हिन्दुस्तान है । और इस तरह जो पंजाबको भी देशके अन्तर्गत मानती हैं — उनके लिए पंजाब भी स्वदेश है । वहाँ हाथसे सूत काता जाता है, बुना जाता है और ऐसे वस्त्र पहने जाते हैं । वस्तुत: समस्त हिन्दुस्तानमें ऐसा ही होता था । अच्छे-बड़े घरानेकी धनवान स्त्रियाँ सूत कातती थीं। सारे वर्णोंके लोग सूत कातते थे। हमारे पूर्वजोंने यह बात समझ ली थी कि करोड़ों मनुष्योंको वस्त्र पहनने हों तो उन्हें सूत कातना सीखना चाहिए । खानेके बिना काम नहीं चल सकता इसलिए स्त्रियोंको भोजन बनाना आना चाहिए। सारे संसार में ऐसा ही है । वस्त्र बिना गुजारा नहीं हो सकता, इस कारण सबको बुनना आना चाहिए । भारतीय सभ्यता और संस्कृति इसी आधार— पर विकसित हुई है। हिन्दुस्तान के पूर्वजोंके मनमें यह विचार नहीं आया कि यहाँ बाहरसे वस्त्र मँगवाकर पहनेंगे। ऐसा करनेवाला राष्ट्र नष्ट हो जाता है ।

यदि राष्ट्र अपना-अपना कपड़ा आप न बनायें तो राष्ट्रोंकी आपसमें लड़ाई ठन जाये । अहमदाबादके कपड़े के लिए उसके साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाने चाहिए । एक राष्ट्रको दूसरे राष्ट्रसे अपनी जरूरतकी चीजोंके लिए सम्बन्ध रखते हुए मित्र भावसे व्यवहार करना चाहिए, नहीं तो युद्ध छिड़ जाता है। पृथ्वीपर लड़ाईका मूल कारण व्यापार है । हमारे बड़े-बूढ़ोंने इसे दृष्टिमें रखकर दूरन्देशी दिखाई और इस बातका निर्णय किया कि हिन्दुस्तानमें दो बातें होनी चाहिए। अनाज और वस्त्र; ये दो वस्तुएँ मिलती रहें तो जीवन सुखमय हो जाये । ये दो वस्तुएँ हिन्दुस्तान में मिलनी चाहिए । उन्होंने खोज की और रुई की खेती की तथा कातने और बुननेके लिए सादे यन्त्रोंका आविष्कार किया — और इस तरह इनके द्वारा हमें सादे कपड़े मिलने लगे ।

डेढ़ सौ वर्ष पहले अर्थात् लगभग चार-पाँच पीढ़ियों पहले हम इस देशमें उगे हुए कपाससे कते सूतके, बुनकरों द्वारा बुने कपड़े पहनते थे । जो वस्त्र आप आजकल पहनते हैं उनकी तुलना में पहलेके वस्त्र अमूल्य थे । उनके आत्मा होती थी । आज परिस्थिति ऐसी है कि आप मुझसे ईर्ष्या कर सकती हैं। आपकी मेरे जैसे वस्त्र पहननेकी इच्छा होनी चाहिए। यदि आप यह कहें कि आपके वस्त्र बारीक और खूबसूरत हैं तो आप धोखेमें हैं । यदि आप मुझे अपने वस्त्र दें तो मैं तो उन्हें जला डालूँ । मेरे वस्त्रोंके पीछे धर्मकी भावना है और आपके वस्त्रोंके पीछे अधर्मकी ।

डेढ़ सौ वर्षसे विदेशी वस्त्र पहननेसे धर्मका, नीतिका उल्लंघन हुआ और उद्योग जाता रहा । धर्म दयामें है । तुलसी दयाको धर्मका मूल कहते हैं। हिन्दके स्त्री—पुरुषों के मनमें हिन्दके प्रति दया हो तो वे बाहरसे वस्त्र न लायें। यदि मैं आपका पड़ोसी होऊँ, कपड़े बुनता होऊँ और अपने बुने वस्त्र लेनेके लिए आपसे कहूँ, तो सम्भव है आप मुझे गाली देकर निकाल दें । अथवा यदि आप विनयशील हों तो कहें कि हमें तो चीनी वस्त्र चाहिए, आपके नहीं । इसे आप दया कहेंगे कि क्रूरता ? शायद आप मुझे बुननेके