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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लिए मना करें, लेकिन मुझे तो बुननेका ही काम आता है और इस कारण मैं केवल वही कर सकता हूँ। इसलिए परिणाम यह हुआ कि आपके पड़ोसी बुनकरका नाश हो गया, आपकी बहनें कातनेसे जो कमाती थीं, वह कमाई गई। कैसी कमाई ? पहले हम हाथसे जो कातते थे, वह कमाई। बाहरसे कतवायें तो हमें उनको कुछ—न—कुछ देना पड़ेगा। लेकिन यदि हाथसे कातें तो सूत रुईके भाव पड़े और फिर यदि हम अपने हाथसे बुनें तो रुईके भाव कपड़ा पड़ेगा। डेढ़ सौ वर्ष पहले लोग इस सीधे न्यायपर चलते थे । स्वदेशीमें अर्थ और धर्म है । देशमें पैसा रहे । यह अर्थ है तथा पड़ोसीकी शक्तिके अनुरूप उससे काम करवाना यह धर्म—कार्य है । आप अपने पड़ोसीकी अवहेलना करके दूसरोंसे काम करवायें, यह न्याय नहीं है । इससे पड़ोसी धर्मभ्रष्ट होता है और आप भी उसी दशामें जा पहुँचते हैं । आप स्वदेशीका त्याग करें, यह धर्मकी जड़को खोद फेंकनेके बराबर है । आपका स्वदेशी [ वस्त्र ] का उपयोग तो करोड़ों व्यक्तियोंका धन्धा है । खेड़ाके किसान और पाटीदारोंके पास खेत हैं और वे उनमें खेती करते हैं। यदि आपसे कोई कहे कि उन्होंने बुद्धिभ्रष्ट होकर यह धन्धा छोड़ दिया है और पंजाबसे अनाज मँगवाया है, तो आप क्या कहेंगे? आप यही कहेंगे कि "इनके दिन लद गये" अपने घर बाजरा आदिकी फसल पैदा हो सकती हो और फिर भी कोई पंजाबसे उसे मँगवाये तो यह कहाँतक ठीक हो सकता है । [ यदि सच्चे ] धर्म—गुरु हों तो इतने सख्त प्रहार करें कि लोग उन्हें सहन न कर सकें। जैसा खेड़ा जिलेके लोगोंका खेती छोड़ना ठीक नहीं है वैसे ही सारे हिन्दुस्तान के लोगोंका स्वयं अपने वस्त्र बनानेका काम छोड़ देना ठीक नहीं है। नग्नावस्थामें रह सकें तो बात अलग है । जबतक हमें अपना तन ढकना है तबतक अपने सूतसे हाथ के बने हुए कपड़े पहनना हमारा धर्म है । जैसे माँ—बाप बदसूरत बच्चे या पति बदसूरत स्त्रीका त्याग नहीं करते — कारण कि ईश्वरने उनके हृदयोंमें प्रेम भर दिया है — वैसे ही अपने धन्धेके सम्बन्धमें होना चाहिए । यदि कोई अघोरी अपने बच्चेका बलिदान दे तो वह क्रूरता ही कहलाती है। विदेशी वस्त्रोंसे प्रजा कंगाल होती है । आपने अच्छे वस्त्र पहने हैं, किन्तु आप हिन्दुस्तान में भ्रमण नहीं करतीं इसलिए आपको नहीं मालूम कि हमारे देशमें भुखमरी फैली है और देश विपन्नावस्थामें है । सम्पन्न गाँवोंमें अच्छे—अच्छे घर खण्डहर हो गये हैं। घरोंमें नई कड़ियाँ नहीं लगाई जातीं। पिछली बार खेड़ाके भ्रमणके समय मैंने देखा किसानोंकी कोठियोंमें अनाज नहीं था । वह अकालकी निशानी है। जो घूमता है वह यह देख सकता है कि कंगालीकी ऐसी दशा डेढ़ सौ वर्ष पहले हुई होती, तो इसे सहन न किया जाता। कपड़े के ऊपर औसतन प्रतिव्यक्ति के हिसाब से प्रतिवर्ष दो रुपये बाहर जाते हैं । अर्थात् डेढ़ सौ वर्ष में प्रति व्यक्ति तीन सौ रुपये बाहर चले जाते हैं । इस प्रकार समूची जनताके करोड़ों रुपये बाहर चले गये और वह चौपट हो गई।

इस तरह राष्ट्र धीरे—धीरे नष्ट हो गया। योग्य कारोबारके अभाव में स्त्री—पुरुषों में दारिद्र्य छा गया। खेतिहर स्त्री—पुरुष फाल्गुन आदि तीन महीनोंमें, एक कुटुम्बके निर्वाह योग्य सूत का सकते हैं। यदि आप अपने हाथसे कातें तो सूत रुईके भाव पड़े। और फिर यदि खुद बुनें तो वस्त्र भी रुईके भाव ही पड़े। आप अगर दूसरेको पैसा देते हैं तो वह सम्पन्न होता है; यदि वही पैसा आपके पास रह जाये यानी आप स्वयं अपने हाथसे वह बुनें तो