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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जिनपर विचार करना शेष है । इनमें से पहला है, “३१ मार्चकी शाम तक चालीस हिन्दू और मुसलमान मारे जा चुके थे।" इसके बारेमें हमारा कहना यह है कि जो इस निर्णयको ध्यानसे देखेगा उसके सामने यह बात बिल्कुल स्पष्ट होगी कि यह तो अभी तक ज्ञात नहीं हुआ है कि वास्तवमें कितने लोग मारे गये। मेरा कहना यह है कि उक्त कथनकी सचाई या झुठाईकी जाँच करने में निर्णायक तथ्य यह नहीं है कि कितने लोग मारे गये, बल्कि यह कि सचमुच कोई मारा गया या नहीं। तब जिस बात से लोगों में आतंक पैदा हो सकता था वह बात मृतकोंकी संख्या नहीं थी, बल्कि यह कि पुलिसने गोलियाँ चलाई। और गोलियाँ चलाई गईं, इससे तो कोई इनकार नहीं कर सकता । जहाँतक मृतकोंकी संख्याकी बात है, सभी अखबार, जिनमें आंग्ल—भारतीय अखबार भी शामिल हैं, अलग-अलग बात कहते हैं । विद्वान् न्यायाधीशने इसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया कि अन्य प्रतिष्ठित अखबारोंमें भी लगभग वैसी ही बातें कही जाती रहीं जैसी 'प्रताप' में । मेरी नम्र सम्मतिमें प्रतिवादी की प्रामाणिकता सिद्ध करनेके लिए यह एक बहुत संगत तर्क था; इससे प्रकट होता है कि उसने जो वक्तव्य प्रकाशित किये उन्हें सच माननेके लिए उसके पास समुचित कारण थे । अभियुक्त द्वारा प्रकाशित उक्त दूसरा वक्तव्य यह है : "इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हताहतोंमें अधिकांश निर्दोष लोग ही थे ।" लाला राधाकृष्णने अपनी अर्जीमें ठीक ही कहा है कि “दिल्लीके अधिकारियोंका भी हताहतोंके बारेमें यही खयाल था और फलतः दंगेके निर्दोष भुक्तभोगियोंके लिए उन्होंने एक कोष की स्थापना की ।" अब मैं यहाँ इतना और कह दूँ कि सरकारकी ओरसे यह दिखानेका कोई प्रयास नहीं किया गया कि मृत या घायल लोगों में से एक भी किसी हिंसात्मक कार्रवाईका अपराधी था । लगता है, अदालतने [ अपने निर्णयके लिए ] केवल इस बातको आधार मान लिया है कि मारे गये लोग "हिंसापर उतारू एक खतरनाक भीड़में शामिल थे।" लेकिन इससे यह अनिवार्य रूपमें तो सिद्ध नहीं होता कि जो लोग मारे गये वे हिंसात्मक आचरणके अपराधी थे । फिर, अभियुक्तने भी अपने लेखोंमें ऐसी शिकायत नहीं की है कि दोषी लोगोंके साथ—साथ निर्दोषोंको भी भोगना पड़ा। उसकी शिकायत तो स्वभावतः यही थी गोलियाँ चलाई ही क्यों गई ।

अब जिस नियमके अन्तर्गत अभियुक्तपर आरोप लगाया गया है उसपर विचार करना आवश्यक है । लाला राधाकृष्णपर नियम २५ के उपखण्ड १ की उपधारा (क) के अन्तर्गत आरोप लगाया गया है। अभियुक्तको अपराधी सिद्ध करनेके लिए यह साबित करना जरूरी है कि

(क) वक्तव्य झूठा है;

(ख) अभियुक्त के पास "उसे सच माननेका कोई उचित कारण नहीं है";

(ग) इसके प्रकाशनका “उद्देश्य जनतामें भय या आतंक पैदा करना है" या इससे "ऐसा भय या आतंक पैदा होनेकी सम्भावना है ।"

ऊपर यह पर्याप्त रूपसे स्पष्ट किया जा चुका है कि वक्तव्योंको झूठा नहीं सिद्ध किया गया है, और यदि किया भी गया हो तो यह नहीं सिद्ध किया गया है कि अभियुक्त के पास "उसे सच माननेका कोई उचित कारण नहीं था।" उल्टे, प्रतिवादीकी ओरसे दिये गये बयान में यह बहुत स्पष्ट बता दिया गया है कि उसने प्रकाशित वक्तव्योंको