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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उद्धार नहीं है। इस मान्यताका त्याग करके ही पूना देशको वर्तमान निराशापूर्ण स्थितिसे निकालनेमें सच्ची सहायता दे सकेगा ।

'स्वदेशीको व्याख्या करते हुए श्री गांधीने एक घरेलू उपमा दी। उन्होंने कहा, मान लीजिए किसी आदमीके पास काफी खाद्य सामग्री है और तरह—तरह के सुस्वादु व्यंजन बनानेके लिए गृहिणी भी घरमें है; किन्तु फिर भी वह अपने लिए किसी होटलसे भोजन मँगाये तो उसे आप क्या कहेंगे? आप यही कहेंगे न कि उसका दिमाग दुरुस्त नहीं है । उसी प्रकार यदि कोई राष्ट्र इस मनुष्य—जैसा आचरण करे तो उसके बारेमें भी यही कहा जा सकता है कि उसका दिमाग दुरुस्त नहीं है; और भारत इसका एक उदाहरण है । आजसे डेढ़ सौ साल पहले वह अपनी जरूरतके लिए खुद ही कपड़ा तैयार करता था । और चाहे सूती हो या रेशमी, इसके द्वारा तैयार किये गये कपड़ेकी बुनाई इतनी अच्छी होती थी कि संसारके किसी भी देशका कपड़ा उसकी होड़ नहीं कर सकता था। लेकिन आज वह अपनी जरूरत के कपड़े में से ज्यादातर बाहरके देशोंसे मँगाता है । उदाहरणके लिए पिछले साल भारतने बाहरसे कपड़े मँगाकर ६० करोड़ रुपये विदेशोंको दे दिये। यह परावलम्बन मूर्खता भी है और पाप भी । यदि हम अपने लिए कपड़ा बनानेका अपना पुराना धन्धा छोड़कर किसी अधिक लाभप्रद काममें लग गये होते तो मुझे कोई आपत्ति न होती । किन्तु तथ्य यह है कि हमने ऐसा कुछ नहीं किया । हमारे देशके किसान, जिनकी संख्या चौबीस करोड़ है, सालमें छः महीने बेकाम रहते हैं । मैं खेड़ा और चम्पारनके किसानोंके बीच रहा हूँ और में जानता हूँ कि वे सालके आधे हिस्से बेकार रहते हैं। ये लोग जबतक स्वावलम्बी नहीं हो जाते, अर्थात् जबतक अपनी आजीविका खुद नहीं कमाने लगते और अपने हाथसे कात—बुनकर अपना कपड़ा खुद नहीं बनाते, तबतक इन लोगोंकी हालत नहीं सुधारी जा सकती। इसके बाद उन्होंने अहमदाबादके निकट स्थित बीजापुर नामक एक गाँवका उदाहरण देते हुए कहा कि इस गाँवमें परम देशभक्त और आत्मत्यागी विधवा श्रीमती गंगाबाई मजमूदारके अथक प्रयत्नोंसे चार सौ मुस्लिम स्त्रियाँ, जिनके पास पहले कोई धंधा नहीं था और जो परदेके कारण बाहर नहीं निकल सकती थीं, अपने घरोंमें चरखे चलाने लगी हैं और इससे उनकी आमदनी बढ़ गई है। इन बेरोजगारोंको रोजगार देनेका श्रेय गंगाबाईको ही है और उनके उदाहरणका सर्वत्र अनुकरण किया जाना चाहिए। आप जर्मनी और इंग्लैंडकी बात सोचिए कि उन्होंने युद्ध—कालमें अपनी खाद्य—समस्या कैसे हल की, कैसे उन्होंने बंजर भूमिको तोड़कर छः महीनेमें उसमें आलू उपजाना शुरू कर दिया । निश्चय ही सूत कातना और अपनी जरूरतके कपड़े खुद बुनना, आलू उपजानेसे कम कठिन काम है। किन्तु यह तो प्रश्नका आर्थिक पहलू है । अभी इस प्रश्नको धार्मिक दृष्टिसे पेश करना तो शेष ही है। स्वदेशीको परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा कि हमें अपनी आवश्यकताओंके लिए दूरके स्थानोंका नहीं, बल्कि आसपास के स्थानों का उपयोग करना चाहिए और उन्हीं की सेवा भी करनी चाहिए । मेरे खयालसे लोग अपने पड़ोसकी उपेक्षा करके दूरके क्षेत्रोंका ही ध्यान रखें तो