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पत्र : छगनलाल गांधीको

यह दया नहीं है और दयाको महान् तुलसीदासने सब धर्मोका मूल बताया है। मैं यह अनुभव करता हूँ कि मनुष्यका पहला और सर्वोच्च कर्त्तव्य अपने पड़ोसकी वस्तुओंका उपयोग करना और अपने पड़ोसियोंकी ही सेवा करना है। यदि वह अपनी जरूरतकी चीजों और सेवा करनेके लिए दूर जाये तो उसका अर्थ यह है कि वह दूसरोंकी अपेक्षा अपना ही खयाल अधिक करता है। श्री गांधीने कहा :

अबतक हमने अपने कीमती खाली वक्तका खासा हिस्सा बरबाद किया है और अब हमारे लिए ठीक यही है कि हम उसका सदुपयोग करनेका प्रयत्न करें और अपना श्रम अपनी जन्म भूमिकी सेवाके लिए अर्पित करें।

इसके बाद उन्होंने स्वदेशीकी तीन प्रतिज्ञाओंको[१] समझाया और कहा कि मेरा विचार है कि कारखानोंमें बने कपड़ोंको अपेक्षा हाथकते सूत द्वारा हाथके बुने कपड़ेमें ज्यादा कला है । मैं चाहता हूँ कि आप भी मेरे इस विचारसे सहमत हो सकें। यदि हम यह भी मान लें कि भारतमें कभी इतनी मिलें हो जायेंगी कि उनसे हमारी आवश्यकताका पूरा कपड़ा बन सकेगा, तब भी ऐसा कोई काम नहीं है जिसमें देशकी स्त्रियाँ अपने समयका इससे अधिक अच्छा उपयोग कर सकें या जिससे वे लोग, जिनके पास आजीविकाके सम्मानपूर्ण साधन नहीं हैं, कताई और बुनाईसे अधिक सम्मानपूर्ण साधन प्राप्त कर सकें। स्वदेशीको प्रवृत्तिका मुख्य अंग यथासम्भव अधिक से अधिक वस्त्रका उत्पादन करना है और इसकी कितनी जरूरत है, इसके बारेमें तो जितना कहा जाये कम होगा। हमारे कार्यक्रमकी सफलताके लिए धैर्य, देशप्रेम और आत्म—त्याग अत्यन्त आवश्यक हैं और मुझे आशा है। कि पूनाके लोग मेरे आह्वानका सोत्साह उत्तर देंगे तथा अपनी गौरवमय परम्पराओंको सत्य सिद्ध करेंगे ।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १६-७-१९१९


४०२. पत्र : छगनलाल गांधीको

गामदेवी
बम्बई
रविवार, आषाढ़ बदी १ [ जुलाई १३, १९१९]

चि० छगनलाल,

तुम्हारा पत्र मिला । पूनासे मैं आज सुबह ही आया । गवर्नर महोदय के साथ लगभग दो घंटे बातचीत हुई। परिणाम स्वरूप लड़ाई फिलहाल मुल्तवी रहेगी। मुझे वाइसरायके पत्रकी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। यदि वे चाहें कि फिलहाल मुझे लड़ाई स्थगित रखनी चाहिए तो मैं वैसा करने को तैयार हूँ, यह मैं उनसे कह आया हूँ । आज—कलमें पता चलेगा कि मुझे

  1. देखिए “स्वदेशी सभाके नियम”, १-७-१९१९ ।