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भाषण : बम्बई में दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंपर


थोड़ा-बहुत कमाया। बादमें कुछ गोरोंने भारतीयोंको ट्रान्सवालसे निकाल बाहर करनेके लिए राष्ट्रपति क्रूगरको सुझाव दिया। उस समय राष्ट्रपति क्रूगर भारतीयोंको नहीं निकाल सके, लेकिन उसके बाद १८८५ में ऐसा कानून बनाया गया कि जिससे वहाँ हमारे भारतीय भाइयोंके सामने बहुत परेशानियाँ आ खड़ी हुई। इस कानूनमें दो मुख्य व्यवस्थाएँ थीं। एकके द्वारा कोई भी “भारतीय” ट्रान्सवाल में स्थावर सम्पत्तिका स्वामी नहीं हो सकता था। दूसरी व्यवस्था, भारतीयोंको व्यापार करनेके लिए तीन पौंडका परवाना लेनेकी थी। उसके बाद एक और कानून बनाया गया जिसे “स्वर्ण—कानून” के नामसे पुकारा जाता है। इस कानूनसे सभी भारतीयोंके अधिकारोंमें रुकावट आने लगी।

१९१४में एक समझौता हुआ, किन्तु उसके द्वारा भारतीयोंकी सारी कठिनाइयाँ दूर न हो सकीं। भारतीयोंके विरुद्ध सरकारने जो नये कानून पास किये थे; उन्हें रद कर दिया गया। इन कानूनों में पंजीयनसे सम्बन्धित एक कानून था, जिसके विरुद्ध सत्याग्रहकी लड़ाई लड़ी गई थी। १९१४ में मेरे और जनरल स्मट्सके बीच हुए समझौतेमें ऐसी व्यवस्था की गई थी कि भारतीय जनता इस समय जो अधिकार भोग रही है उन्हें ज्योंका—त्यों रहने दिया जायेगा। इस व्यवस्थाका भारतीय जनता एक अर्थ करती है और ट्रान्सवालके अधिकारी दूसरा। सन् १९१३ में भारतके तत्कालीन वाइसराय लॉर्ड हार्डिगने सर बेंजामिन रॉबर्ट्सनको उस समय दक्षिण आफ्रिका भेजा था जिस समय मैं वहाँ रहने वाले भारतीयोंको कूच करते हुए ट्रान्सवाल ले जानेके लिए तैयारी कर रहा था। उस समय यहाँ भी सबको लगता था कि इसका अनुकूल परिणाम निकलेगा। फिर मेरे और श्री स्मट्सके बीच पत्र—व्यवहार हुआ और उससे कुछ स्पष्टीकरण हुआ । इसके अतिरिक्त कुछ गोरोंने भारतीयोंको 'स्वर्ण—क्षेत्र' की सीमा में परवाना तक न देनेका सुझाव दिया था। १८८५ के कानूनको, जो भारतीयोंकी स्थावर सम्पत्तिके प्रश्नसे सम्बन्धित है, आजतक कोई दूर नहीं करवा सका। लेकिन में वकीलके रूपमें लोगोंको यह विधिसम्मत सलाह देता था कि हम अपनी जमीन [ किसी गोरेके पास ] गिरवी रखकर उसका उपयोग कर सकते हैं। इसके अनुसार हमारे अनेक भारतीय भाइयोंने वहाँ भूमि दूसरोंके नाम कर दी थी। इसी तरह, यदि दो-चार व्यक्ति मिलकर कम्पनी स्थापित करें तो वे स्वयं अपने नामपर जमीन ले सकते हैं; इस छूट के कारण कार्पोरेशनके रूपमें भी हमारे भारतीय भाइयोंके पास वहाँ जमीनें हैं।

लेकिन अब ये अधिकार भी छीन लिये गये हैं। यह तो स्वीकार करता हूँ कि उसमें एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अनुसार जिन भारतीयोंके पास पहलेसे ही जमीन और स्थावर सम्पत्ति है उनपर कोई आपत्ति नहीं की जायेगी; किन्तु उनके अलावा अन्य भारतीय अबसे इस तरह जमीनें कम्पनीके रूपमें भी नहीं ले सकेंगे। यह बहुत ही अनुचित है।

अभी हाल ही में ऐसा कानून बनाया गया है जिसके अनुसार ३१ मईके बाद कोई भारतीय व्यापार भी नहीं कर सकता। इस तरह उनसे व्यापार करनेके वर्षोंसे प्राप्त अधिकार जबरदस्ती छीन लिये गये हैं। भारतीयोंके रूपमें हमें, एक स्वरसे, ऐसी विषम स्थितिकी ओर भारत सरकारका ध्यान खींचना चाहिए। हमारी यह लड़ाई कोई भारत सरकारके साथ नहीं है, बल्कि उसके हाथ मजबूत करनेके लिए है। इससे भारत