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पत्र: ए० एच० वेस्टको

लिखा था कि अगर तुम मेरे पास होते तो मैं कितना खुश होता । कामकाज सम्बन्धी तुम्हारा एक भी पत्र अनुत्तरित नहीं रहा-लगभग मृत्यु-शय्यापर रहते हुए भी मैंने उत्तर दिये हैं। मुझे याद पड़ता है कि मैंने तुम्हारा पत्र पाकर रुस्तमजीको लिख दिया था कि उन्होंने तुम्हें जो-कुछ दिया हो वह सब मेरे नाम डाल दें। मुझे यह भी स्मरण आ रहा है कि तुमने अपने एक पत्रमें रुपयोंके बारेमें रुस्तमजीको तार देनेके लिए लिखा था । परन्तु मैंने तार नहीं किया, क्योंकि मैंने हिसाब लगाया तो लगा कि रुस्तमजीको उस समयतक मेरा पत्र मिल ही चुका होगा और महादेव देसाईने मेरे इस अन्दाजको ठीक भी बताया। सम्भव है, मेरे पत्र बीचमें खो जाते हों, यह भी मुमकिन है कि जिस स्वयं सेवकको डाक डालनेका काम सौंपा गया है उसने कुछ पत्र लापरवाहीके कारण गिरा या खो दिये हों। मैं ऐसा इसलिए लिख रहा हूँ कि तुमसे ही नहीं पोलक, रामदास तथा अन्य लोगोंसे भी ऐसी ही शिकायतें सुननेको मिली हैं । जो कुछ मैंने दूसरोंको लिखा है वही तुम्हें लिखा रहा हूँ कि वे मुझे क्षमा करें और यह कभी न सोचें कि मैं पत्रोत्तर देने में लापरवाही किया करता हूँ। क्या ही अच्छा होता कि मेरे पास और अवकाश होता ताकि मैं जितना और जब- जब लिखना चाहता, लिखा करता । परन्तु आज यह मेरे भाग्यमें नहीं बदा है । मैं रुस्तमजीको आज फिर उस ७० पौंडके बारेमें लिख रहा हूँ ।

अभी हाल ही में मैंने मणिलालको 'इंडियन ओपिनियन' के विषयमें पत्र लिखा है। उसने मुझे लिखा था कि या तो धनकी व्यवस्था कीजिए या विज्ञापन छापने और बाह्रका काम लेनेकी अनुमति दीजिए। जब में वहाँ था तब मैंने जो राय दी थी वही राय मेरी आज भी है। यहाँ जो स्वार्थाचरण देखने में आ रहा है और अच्छे-बुरेका विचार छोड़कर जिस अंधाधुंध ढंगसे विज्ञापन लिए जाते हैं उसपर जितना अधिक सोचता और जितना अधिक मेरा खयाल इस बातपर जाता है कि ये विज्ञापनादि परोक्ष रूपसे चालाकीके साथ लिये गये ऐच्छिक कर के अलावा और कुछ नहीं हैं, और ये सब चीजें पत्रकारिताको किस प्रकार दूषित कर देती हैं और किस प्रकार उसे मुख्यतः एक व्यवसायका रूप दे देती हैं, उतना ही मुझे अपनी रायके सही होनेका विश्वास होता जाता है । कुछ भी हो, दो विसंगत कार्य एक साथ करना हरगिज उचित नहीं है। या तो 'इंडियन ओपिनियन' को धनोपार्जनका एक व्यवसाय मान लीजिए, और तब जनतासे यह आशा करना छोड़ दीजिए कि वह इस अखबारको देश-भक्ति, परोपकार या लोक-कल्याणका काम माने, या इस अखबारको दक्षिण आफ्रिकामें रहनेवाले भारतीयोंकी आकांक्षाओंका मुख्य प्रतिनिधि पत्र मानकर जनताकी शुभ कामना, सदाशयता और सहायतापर पूर्ण रूपसे निर्भर रहिए। मैंने मणिलालको इस बातके लिए राजी कर लिया है कि 'इंडियन ओपिनियन' को व्यवसाय या धन्धेके रूपमें न चलाया जाये। मैंने उसे वहाँ इसलिए नहीं भेजा है कि वह वहाँ व्यापार करे बल्कि मैंने उसे वहाँ सार्वजनिक सेवाके लिए भेजा है । मुझे लगता है कि 'इंडियन ओपिनियन' ने आंशिक रूपमें ही सही, हमारे उद्देश्यकी पूर्ति की है। उसकी बदौलत अनेक भारतीय छापाखाने खुल गये और अनेक भारतीय समाचारपत्र निकलने लगे हैं । वे सब जनताकी कुछ-न-कुछ सेवा करते ही हैं। मणिलालमें नेतृत्व करने और मौलिक काम कर दिखानेकी योग्यता नहीं है, और इसमें उसका कोई दोष भी नहीं है । इसलिए उसके काम दूसरोंपर कोई छाप नहीं डाल पाते ।