एक द्वारा आजीवन देश निकाले तथा सम्पत्तिकी जब्तीकी सजा दी गई है। क्षण- भरके लिए पाठक खण्ड १२१ (क) को भूल जायें। अभियुक्तको खण्ड १२१ के अन्तर्गत सजा दे चुकनेके बाद न्यायाधिकरणके सामने आजन्म निर्वासन तथा जब्तीकी सजा देनेके अतिरिक्त और कोई विकल्प न था । यह स्पष्ट है कि यह कमसे-कम सजा थी जो अदालत दे सकती थी; अधिकसे-अधिक सजा फाँसी थी । न्यायाधीशोंने अन्तिम दो अभियुक्तोंके बारेमें यह अनुभव किया कि उनको दिये गये दण्डकी कठोरता इतनी अधिक है कि वे यह कहने के लिए विवश हुए :
- अल्लादीन और मोटासिंहका अपराध बड़ा नहीं है; और अगर हमारे हाथमें होता तो उनको हम अपेक्षाकृत बहुत हल्की सजा सुनाते ।
विद्वान् न्यायाधीशोंके अधिकारकी बात यह थी कि या तो वे किसी भी अभियुक्तको कोई सजा न देते या देते तो अन्य अभियोगोंपर देते । परन्तु उन्होंने कहा है : अन्य अभियोगोंके सम्बन्धमें अपना मत अंकित करनेकी आवश्यकता नहीं समझते ।
यद्यपि फैसला फुलस्केप आकारके २७ पृष्ठोंपर लिखा हुआ है, फिर भी हम उसे 'यंग इंडिया' के पाठकोंके समक्ष प्रस्तुत करते हैं । मेरा अनुरोध है कि प्रत्येक पाठक इस निर्णयको पूरा-पूरा पढ़ जाये। क्योंकि न्यायाधीशोंने इसे सब मुकदमोंसे अधिक महत्त्व दिया है और संसारको यह दिखा दिया है कि पंजाब और प्रसंगवश समस्त भारतवर्ष उनकी निगाहोंमें क्या वक़्त रखता है ।
यदि इस फैसलेको अमृतसरके फँसलेके साथ पढ़ा जाये तो ब्रिटिश न्यायकी एक अत्यन्त निन्दनीय तसवीर सामने खड़ी हो जाती है, जिसमें न्यायाधीश लोग न्यायशीलतासे प्रेरित होकर नहीं, बल्कि आवेश और द्वेषके वशीभूत होकर अपने निर्णय सुनाते हैं । मेरे नजदीक तो ये फैसले मेरे द्वारा व्यक्त किये गये इस विचारको प्रमाणित करते हैं कि हमें ब्रिटिश न्यायपर फिदा न होना चाहिए, और यह भी कि मूलतः ब्रिटिश न्याय अन्य किसी देशके न्यायसे बढ़कर नहीं हैं । हम इस मिथ्या विश्वास में पड़कर अपने को धोखा दिया करते हैं कि ब्रिटेनकी अदालतें स्वाधीनताके आधार स्तम्भ हैं। ब्रिटेनकी अदालतोंमें न्याय एक खर्चीला व्यसन है। अक्सर ऐसा हुआ करता है कि जिसके पास सबसे अधिक धन होता है वही जीतता है । "किसी भी बातकी सबसे अधिक विश्वसनीय परीक्षा तो गाढ़े समय में ही हुआ करती है। न्यायाधीशोंका काम तो अपने आसपास के वातावरणसे ऊपर उठना है । मेरी राय में पंजाबका न्यायाधिकरण इस सम्बन्धमें बुरी तरह असफल हुआ है। श्री विन्स्टन चर्चिलने जब शिक्षा-सम्बन्धी जंग छेड़ी थी तब उन्होंने यह स्वीकार कर लिया था कि न्यायाधीश भी राजनीतिक पक्षपातसे मुक्त नहीं हैं । यद्यपि इसकी बहुत ही कम गुंजाइश है, फिर भी इस मामलेमें यह सम्भव तो है कि प्रीवी कौंसिल स्थितिको सँभाल ले, परन्तु वहाँ जाकर ऐसा हुआ भी तो उससे क्या होता है? कितना खर्च पड़ेगा इसमें ? करोड़ों लोगोंमें कितने ऐसे हैं जो नीचेकी अदालतोंके फैसलोंसे क्षुब्ध होकर, सकारण क्षुब्ध होकर, अपील-अदालत और अन्ततोगत्वा प्रीवी कौंसिल तक जानेकी शक्ति रखते हैं। इसलिए लोगोंका अदालतबाजीमें न पड़ना एक बहुत ही वांछनीय स्थिति है । 'प्रतिद्वंद्वीसे एकदम सहमत हो जाओ" — कानून सम्बन्धी सबसे उत्तम लोकोक्ति है । परन्तु यह पूछा जा सकता है कि हम जब अदालतोंमें जानेको मजबूर हो जायें और होते