पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 15.pdf/५१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४८९
लाहौरका फैसला

ही हैं, तब क्या करें ? मैं तो कहूँगा 'बचाव मत करो'; यदि तुम गलतीपर हो तो उस सजाके तुम पात्र हो-फिर वह सजा चाहे जो हो । और अगर तुम्हें अदालत में अन्यायपूर्वक लाकर खड़ा कर दिया गया है और तुमको सजा दे दी गई है तो अपने निर्दोष होने के बलपर इस नाहक आये हुए कष्टको हँसकर सहन कर लो। अगर तुम अपना बचाव नहीं करते तो दोनों हालतोंमें कमसे कम कष्ट होगा। इसके अतिरिक्त तुम्हें उन अधिकांश मनुष्योंका साथ देनेका सुख और सन्तोष भी मिलेगा जो अपना बचाव करने में असमर्थ हैं ।

परन्तु यह विषयान्तर हुआ है । यद्यपि में अदालतोंके बारेमें अपनी इस रायको बिलकुल ठीक मानता हूँ, फिर भी मैं उसे पाठकोंपर लादना नहीं चाहता। लाहौर अदालतका फैसला हमें स्पष्ट रूपसे रौलट अधिनियम तथा अभियुक्तोंको सुनाई गई सजाओंके सम्बन्धमें हमारा कर्त्तव्य बतला देता है। इस निर्णयका मन्शा रौलट अधिनियम विरोधी आन्दोलनको निन्द्य ठहराना ही है ।

फैसले के प्रारम्भिक अनुच्छेदोंमें थोड़े विस्तारके साथ "रौलट अधिनियमके विरोध में सार्वजनिक आन्दोलन"का जिक्र हुआ है। उसके अनुसार आन्दोलन “४ जनवरी, १९१९ को ब्रेडला हॉलमें की गई विरोध-सभासे शुरू होता है ।" इन अनुच्छेदोंमें मेरे पहली मार्चके पत्रका तथा सत्याग्रह-प्रतिज्ञाका[१]उल्लेख है और १५ अप्रैल तककी घटनाओंका वर्णन है, जिसमें दिल्लीकी गोलीबारी, अमृतसरके दंगों और बादशाही मस्जिदमें की गई सभाओंका भी जिक्र किया गया है । कहा गया है कि :

ये मुख्य-मुख्य तथ्य हैं। सरकारी पक्षने इन तथ्योंको एकत्र करके तथा उनकी कड़ियाँ जोड़कर उन्हें अभियुक्तोंसे इस प्रकार सम्बद्ध करनेकी कोशिश की है कि यह जाहिर हो जाये कि रौलट अधिनियमको अपराधपूर्ण साधनों द्वारा रद करवानेके लिए षड्यंत्र रचा गया था ।
अदालत इसके बाद दूसरे ही वाक्यमें इन अपराधपूर्ण साधनोंपर प्रकाश डालती है ।
बचाव पक्षने हमसे इस बातपर विश्वास करनेको कहा है कि हड़ताल करानेके निमित्त कोई संगठन नहीं किया गया था और लाहौर, मुजंग तथा भगवानपुराके प्रत्येक दुकानदारने खुद अपने ही मनसे यह निश्चय किया था कि मैं विरोध प्रदर्शित करनेके लिए अपनी दुकान जरूर बन्द रखूँगा ।

उसके अनन्तर अदालतने, तथाकथित उत्तेजक पोस्टरोंका उल्लेख यह सिद्ध करनेके लिए किया है कि हड़ताल संगठित थी। मुझे उनमें से किसीमें जरा भी हिंसा नहीं दीख पड़ रही है, अलबत्ता उसमें क्षुब्ध अन्तरात्माके सन्तापका दर्शन अवश्य होता है । इसे जनताका अपराध माना गया है कि हड़तालको संगठित किया गया, उसे जारी रखा गया, उस अवधि में लंगरखाने खोले गये और सभाएँ की गईं। मेरा विश्वास है कि जब लोग अधिकारियोंके किसी कृत्यसे बहुत ही क्षुब्ध हो जाते हैं तब हड़ताल करना उनका नैसर्गिक अधिकार है। सरकारी अधिकारियोंके कामोंके खिलाफ बल-प्रयोगको साधन

 
  1. देखिए " पत्र : अखबारोंको ", २६-२-१९१९ ।