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लाहौरका फैसला

तो कोई भी व्यक्ति सरकारके नौकरों द्वारा किये गये अनधिकृत कार्योंके लिए सरकारको दोषी ठहरा सकता है । अगर लाला दुनीचन्द, लाला हरकिशनलाल और उनके सह—अभियुक्तों के कार्य 'युद्धके काम तो इस देशमें किसी भी प्रकारका संगठित आन्दोलन सम्भव नहीं हो सकता । समाजमें जब प्रगतिका अवरोध होने लगता है, फिर उसका स्वरूप सामाजिक, आर्थिक या राजनैतिक कुछ भी क्यों न हो, तब संगठित आन्दोलन सार्वजनिक जीवनका अनिवार्य अंग हो जाता है । इसलिए लाहौर अभियुक्तों द्वारा किये गये कामोंसे मिलते-जुलते कार्य करनेकी शकलमें युद्ध छेड़ना 'सराहनीय काम' समझा जाना चाहिए ।

उक्त फैसला शुरू से आखिरतक राजनीतिक पक्षपातसे भरा पड़ा है। न्यायाधीशोंने अभियुक्तोंके पिछले जीवनको किस तरह भुलाया है, सो देखिए :

अभियुक्तोंके बारेमें विचार शुरू करनेके पूर्व यह कहना जरूरी है कि उनमें से प्रत्येकने समाजमें अपनी—अपनी प्रतिष्ठाके अनुसार, अपनी राजभक्ति एवं अपने संयत आचारके विषयमें ऐसे लोगोंके प्रमाणपत्र प्रस्तुत किये हैं जो समाजमें प्रख्यात हैं। यह ठीक है कि प्रख्यात व्यक्तियोंसे प्राप्त इन प्रमाणपत्रोंकी संख्या चाहे जितनी बढ़ाई जा सकती थी। कुछ अभियुक्तोंने यह भी प्रमाणित किया है कि अभी हालमें ही उन्होंने अंग्रेजोंकी जीतके लिए ईश्वरसे प्रार्थना तो की ही है; उन्होंने लोगों से लड़ाईके लिए ऋण देने को भी कहा है, सैनिकोंकी भरतीमें सहायता दी है और अपने नातेदारोंको भारतीय सेनामें सम्मिलित कराया है या मेसोपोटामियामें मुंशीगिरी करनेके लिए भिजवाया है। ये सब प्रयास बहुत मूल्यवान नहीं समझे गये । यह बात याद रखी जानी चाहिए कि अभियुक्तों में से कुछका स्थान जनताकी नजरोंमें बहुत ऊँचा रहा है; और इस बातके बारेमें तो सन्देह ही नहीं है कि उन अभियुक्तोंमें से प्रत्येक, फिर वह ब्रिटिश सरकारसे चाहे जितना चिढ़ता हो, जर्मन शासनको आने देनेकी अपेक्षा ब्रिटिश शासनको अधिक पसन्द करता है । परन्तु हमारे सामने जो मामला पेश है उसपर इनमें से किसीकी बातका सचमुच कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।

जब किसीका विवेक इतना मन्द पड़ जाता है जैसा कि इन न्यायाधीशोंके उपरोक्त वाक्योंसे प्रकट हो रहा है—तब निष्पक्ष निर्णयकी आशा ही नहीं की जा सकती ।

इस मामलेमें जो मुद्दा उठता है, यद्यपि वह व्यक्त नहीं किया गया, फिर भी है बिलकुल साफ। हम कानूनन एक शक्तिशाली और लगातार चलनेवाले आन्दोलन को जिसमें जुलूस, हड़तालें, उपवास इत्यादि आते हों —परन्तु जिसमें कदापि, किसी भी प्रकारकी हिंसा के लिए स्थान न हो, संचालनका हक रखते हैं या नहीं ? उक्त निर्णयकी यही ध्वनि है कि हम ऐसा नहीं कर सकते। यदि सरकार इन सजाओंको कायम रखती है तो यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि उसकी और न्यायाधीशोंकी राय एक ही है । में स्वयं तो, उन अभियुक्तोंकी रिहाईका, किसी गौण कारणसे अथवा दयाकी भीखके रूपमें, स्वागत नहीं करूँगा । फँसलेमें ऐसा कोई वाक्य नहीं है जिससे यह