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४१९. पत्र : सर जॉर्ज बार्न्सको

बम्बई
जुलाई २६, १९१९

प्रिय सर जॉर्ज बाज़,

अभी हालमें पास किये गये ट्रान्सवाल एशियाई कानून के सम्बन्ध में गत १८ तारीखके[१]आपके विस्तृत पत्रके लिए धन्यवाद ।

आपके पत्रके अन्तिम वाक्यके[२] आधारपर मैं उसे अपने उत्तरके[३]साथ प्रकाशित करा रहा हूँ । आप तथा परमश्रेष्ठ इस मामले में समुचित कदम उठा रहे हैं इसके लिए मैं कृतज्ञ हूँ । परन्तु दुःखके साथ कहना पड़ता है कि विधेयकके सच्चे स्वरूपके बारेमें आपको भेजी गई सामग्री भ्रमोत्पादक नहीं तो अधूरी अवश्य है । यही बात ट्रान्सवालके सर्वोच्च न्यायालय के फैसलेके बारेमें दी गई जानकारीके बारेमें, जिसका उल्लेख आपके पत्र में हुआ है, लागू है ।

सर्वोच्च न्यायालयके फैसलेके बारेमें सही स्थिति यह है कि ट्रान्सवाल प्रेशस ऐंड बेस मेटिल्स ऐक्ट, १९०८ के खण्ड १३० और १३१ केवल निवास—सम्बन्धी अधिकारोंका जिक्र करते हैं, उनमें व्यापार—सम्बन्धी अधिकारोंका कोई जिक्र नहीं है। मौजूदा ट्रान्सवाल कानूनोंकी हदतक उसी सर्वोच्च न्यायालयके दूसरे निर्णय के अनुसार उनका कभी अतिक्रमण नहीं किया जा सकता । अतएव, आप देखेंगे कि नये कानूनके परिणामस्वरूप भारतीय प्रवासी ट्रान्सवालमें अपने मौजूदा व्यापार सम्बन्धी अधिकारोंसे वंचित हो जाता है । १९०८ के कानूनके खण्ड १३० और १३१ द्वारा निवास—सम्बन्धी अधिकारोंको कम करनेका प्रयत्न किया गया था । नया कानून और आगे बढ़कर व्यापारके अधिकारोंको कम करता है और इस प्रकार ट्रान्सवालके स्वर्णक्षेत्रमें वैध रूपसे बसे हुए भारतीयकी बरबादी में कोई कसर नहीं रखता । तब, संघ सरकार जोर देकर यह दावा कैसे पेश कर सकती है कि उसने १९१४ के समझौतेपर ईमानदारीके साथ अमल किया है ? मैं यह और निवेदन करना चाहूँगा कि १९०८ का कानून हमेशा ट्रान्सवाल सरकार तथा भारतीय समाजके बीच झगड़े की जड़ रहा है। मैं कृतज्ञतापूर्वक कहता हूँ कि उस कानूनके खण्ड १३० और १३१ की धाराओंके व्यवहारतः प्रभावहीन बने रहने का कारण सम्राट्की सरकार द्वारा हमारी खातिर किया गया कड़ा संघर्ष था। अब शायद यह बात आपकी समझमें आ

  1. इस पत्र में दक्षिण आफ्रिकाकी स्थितिपर विस्तारके साथ प्रकाश डाला गया था और इसपर खेद प्रकट किया गया था कि भारतके विरोधपूर्ण पत्रका कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है । पत्रमें यह आश्वासन भी दिया गया था कि नये कानूनके पूरे पाठके सुलभ होनेपर सरकार विचार करेगी कि आगे क्या कार्रवाई की जाये ।
  2. “ आप निःसन्देह इस पत्रका जो भी उपयोग करना चाहते हों, खुशीसे करें । "
  3. ये बॉम्बे क्रॉनिकल और न्यू इंडिया, २९-७-१९१९ में भी प्रकाशित हुए थे ।