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सत्याग्रह में राजद्रोह नहीं है

किसी भी व्यक्ति या संस्थाके द्वेषात्मक अथवा तिरस्कार योग्य कृत्योंका, परिणामकी परवाह किये बिना, अनादर करने या भंडाफोड़ करनेमें संकोच नहीं करेगा । ऐसा करके वह उस व्यक्ति अथवा संस्थाको उस सारी घृणा अथवा तिरस्कार से बचा लेता है, जिसकी वह सचमुच में पात्र नहीं है । राजद्रोह के कानूनका ऐसा अर्थ तो नहीं हो सकता कि राज्य के किसी भी जुल्म या मनमानीके आगे, भले ही उसे विधान-पुस्तकमें स्थान मिल गया हो, इस डरसे सिर झुका दिया जाये कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो उस अत्याचारी राज्यके प्रति लोगोंके मनमें घृणा उत्पन्न होगी इसलिए सविनय— अवज्ञा करनेवाला हेतुओंका आरोपण नहीं करेगा, बल्कि [ राज्यके ] प्रत्येक कार्यकी उसके गुण—दोषोंके आधारपर ही जाँच करेगा । सविनय कानून—भंग प्रेम और भाईचारेपर आधारित है, जब कि कानूनका विनयहीन भंग द्वेष और तिरस्कारपर । प्रकाश और अन्धकारमें जितना फर्क है, उतना ही अन्तर सविनय कानून—भंग और विनयहीन कानून- भंगके बीच है। जब देशमें सविनय कानून—भंगकी भावना व्यापक हो जायेगी और मैं आशा रखता हूँ कि ऐसा शीघ्र ही हो जायेगा, तब अपराध और रक्तपात लगभग भूतकालीन घटना बन जायेंगे ।

आपत्तिका उत्तर

मित्रगण और सरकार दोनों ही यह आपत्ति पेश करते हैं कि जीवनके एक सिद्धान्तके रूप में सविनय कानून—भंग अपने-आपमें भले ही बहुत प्रशंसनीय वस्तु हो, परन्तु नासमझ लोग सविनय कानून-भंग और विनयहीन कानून—भंगके बीच भेद न कर सकनेके कारण और पसन्द न आनेवाली वस्तुकी अवज्ञा करनेकी मनोवृत्ति रखनेके कारण प्रबुद्ध लोगोंकी कल्पनाके सविनय कानून—भंगका अर्थ किसी भी तरहका कानून—भंग करनेकी भूल कर सकते हैं और सब कानूनोंको ताकपर रखकर मनचाहा व्यवहार करने लगते हैं । यह तर्क विचारणीय अवश्य है, परन्तु इससे सविनय कानून—भंगकी आवश्यकता अथवा भव्यता अप्रमाणित नहीं हो जाती । इससे तो इतना ही साबित होता है कि मेरे-जैसे आदमीको, जो सविनय कानून—भंगका प्रयोग नये और विस्तृत क्षेत्र में कर रहा है, बहुत सावधानी रखनेकी जरूरत है ।

इस विवेचनको पढ़नेपर आपके पत्रके पाठक यह अनुमान लगा सकते हैं कि उपर्युक्त उद्धरणके अन्तिम अंशका कितना मूल्य है । अंश इस प्रकार है :

यह सर्वविदित है कि बम्बई में सविनय अवज्ञाने जब्त साहित्य बेचनेका रूप ग्रहण किया था जो कि भारतीय दण्ड संहिताके खण्ड १२४ (अ) के अनुसार अपराध है। दूसरे शब्दोंमें यह कृत्य एक फौजदारी कानूनकी सक्रिय अवज्ञा है ।

वर्जित साहित्यकी बिक्री फौजदारी कानूनका सक्रिय भंग करनेके लिए नहीं, वरन् प्रबन्ध विभागके अधिकारियोंकी निषेधाज्ञाको चुनौती देनेके लिए की गई थी और जैसा कि अब प्रकट हुआ है ऐसी बिक्रीमें कानूनका कोई भंग ही नहीं था, क्योंकि इससे किसी भी कानून अथवा हुक्मका उल्लंघन नहीं हुआ था । सविनय कानून—भंग करनेवालेने निषेधाज्ञाका अर्थ समझने में भूल (?) की थी ।