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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चलेंगी। और यदि सूरतवासियोंकी भावनाएँ खरी न हुईं, उनमें सद्भावना न हुई तथा उनकी वृत्ति विदेशी वस्तुएँ लेनेकी रही, तो भी चलेंगी, फिर तो दुकानें जितना चाहें उतना दाम बढ़ाकर माल बेचें, चलेंगी। मैं ऐसी प्रार्थना करता रहूँगा कि चपरासी — और इससे आगे बढ़कर कहूँ तो भंगीसे कलक्टर आदि सब लोग विदेशी माल न लेकर स्वदेशीको प्रोत्साहन दें। आपको भी इस प्रार्थनामें शामिल होना चाहिए। शुद्ध हृदयसे प्रार्थना तो वही कर सकता है जो अपनी प्रार्थनाके अनुरूप कार्य करने वाला हो । यदि आप इस प्रार्थनामें सम्मिलित होंगे तो आप ऐसा करने में समर्थ हो सकेंगे। दूसरोंके सामने सद्विचार रखिये, इस भावनाको अपने समक्ष आदर्श रूपमें रखकर उसपर आचरण कीजिए और जैसा मैंने कहा है इस जिलेका प्रत्येक व्यक्ति इस व्रतका पालन करनेवाला बने । भंगीको समझाना, यह बड़ी बात है लेकिन कलक्टरसे इस व्रतका पालन करनेके लिए कहना कोई मुश्किल काम नहीं । देशकी खुशहाली कैसे स्वदेशीपर ही निर्भर करती है, यह बात मैं अब आपको समझाऊँगा। मैंने कुछ देशों के इतिहास पढ़े हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि यूरोप, अमेरिका आदि सब देशों के लोग स्वदेशीका पालन करते हुए एक विशिष्ट स्थितिमें पहुँचनेके बाद ही खुशहाल हुए हैं। इस भावनाके बिना देश आर्थिक दृष्टिसे ऊँचा चढ़ ही नहीं सकता । स्वदेशी व्रतका पालन धार्मिक दृष्टिसे भी ऊँचा उठाता है। किन्तु इस अवसरपर में आर्थिक स्थितिके सम्बन्धमें बोलूँगा । इतिहास बताता है कि बादशाहोंकी बेगमें और राजाओंकी रानियाँ भी सूत कातती थीं । 'स्पिन्स्टर' और 'वाइफ आपने ये दो शब्द सुने होंगे । 'स्पिन्स्टर' का अर्थ कातनेवाली है । वाइफ' का अर्थ पत्नी नहीं बल्कि बुननेवाली है । स्त्री कौमार्यकालमें कातती थी; लेकिन पत्नी बनने के बाद वह कातती भी थी और बुनती भी थी। शास्त्रोंमें ऐसे अर्थ मिलते हैं । जिन देशोंमें ऐसी आर्थिक स्थिति दृढ़ हुई, वे खुशहाल हो गये। भारतकी ७३ प्रतिशत आबादीका मुख्य आधार खेती है । मैं हमेशा कहता हूँ कि जहाँतक बन पड़े यथातथ्य भाषाका प्रयोग करना चाहिए। कुछ लोग ८० प्रतिशत कहते हैं लेकिन ठीकसे गिनती करनेपर ७३ प्रतिशत अर्थात् २१ करोड़ स्त्री-पुरुष खेतीपर गुजारा करते हैं । खेतीके धन्धे में लोग चार महीने तो निठल्ले बैठे ही रहते हैं । जो जमींदार हैं उन्हें वर्ष में बारह महीने आजीविकाके साधन प्राप्त हैं। खेती आप करनेवाले भी सारा साल काम नहीं करते और इस चाहिए उतना नहीं कमा पाते । यूरोपमें पत्नियोंने बुनने का और कुमारियोंने अपना धन्धा छोड़ दिया है लेकिन उनके पास दूसरे उद्योग हैं। और उन्होंने उसे छोड़ा भी इसी कारण है । उन्होंने दूसरे उद्योग अपना लिये हैं, वे अच्छे हैं कि बुरे में उस विषयपर विवेचन नहीं करूँगा; परन्तु भारतके राजनीतिज्ञ भी अब खोज कर रहे हैं कि खेतिहरोंको खेतीके उपरान्त क्या सहायक धन्धा दिया जा सके जिससे वे अपने पांवोंपर खड़े हो सकें। यदि वैसा न हुआ तो थोड़े वर्षों में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जायेगी कि वे अब जो लगान देते हैं वह भी नहीं दे सकेंगे। मैं विनयपूर्वक और दृढ़तापूर्वक कह रहा हूँ कि यदि आप खुशहाली चाहते हैं तो स्वदेशीका प्रचार कीजिए अर्थात् खेतिहरको कातना और बुनना सिखाइये । यह तो मानी हुई