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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लिए खानेकी चीजें पैदा भी करता है; और बाहरसे मँगाता भी है । इसके लिए उसे एक बड़ा जहाजी बेड़ा रखना पड़ता है। इंग्लैंडको अपने जहाजी बेड़ेपर बड़ा घमण्ड है, लेकिन मेरी रायमें यह घमण्ड तो थोड़े समयका है, नश्वर है । उसे घमण्ड इसी बातका हो सकता है कि उसके पास ऐसी नौ—शक्ति रखनेकी क्षमता है, किन्तु इस बेड़ेके कारण उसे जो स्थान और महत्त्व प्राप्त हुआ है उसको कायम रखने के लिए उसको अपने लोगोंपर भारी कर लगाना पड़ता है और अन्तर्राष्ट्रीय जल—मार्गोंपर पूरी निगरानी रखनी पड़ती है। यदि हम अंग्रेजोंसे अपना सम्बन्ध शुद्ध बनाना चाहते हैं तो हमें उसमें से अस्वाभाविक स्वार्थको दूर करना होगा और उनकी आर्थिक मान्यताएँ नष्ट करनी होंगी। में इंग्लैंडके बेड़ेसे कभी प्रभावित नहीं हुआ और मैंने कभी नहीं माना कि भारतके लिए किसी ऐसे बेड़ेकी आवश्यकता है। क्योंकि इंग्लैंड और स्काटलैंड छोटे टापू हैं, और वहाँ प्रचुर मात्रामें कोयला उपलब्ध है, इसलिए उनके लिए जहाजी बेड़ा रखना आसान है। इसके विपरीत भारत एक विशाल देश है । वह टापू नहीं है, बल्कि एक प्राय:द्वीप है । यहाँकी धरतीमें कोयला बहुत मात्रामें उपलब्ध नहीं है । उसपर अफगान, तातारी, चीनी और तिब्बती हमला कर सकते हैं। इसलिए भारत कोई बड़ा बेड़ा रख भी ले तो वह केवल उसीपर निर्भर नहीं रह सकता। उसे इसके अतिरिक्त एक सेना और रखनी पड़ेगी और इन दोनोंको रखनेमें उसके सारे साधन चुक जायेंगे ।

ब्रिटेनकी अर्थ-नीति

इंग्लैंडकी अर्थ—नीतिकी चर्चा करते हुए उन्होंने कहा : महारानी एलिजाबेथके समयमें इंग्लैंड को भी स्वदेशीके व्यवहारपर निर्भर रहना पड़ता था; यहाँतक कि उसे कानून बनाकर स्वदेशी वस्तुओंका व्यवहार अनिवार्य कर देना पड़ा था । जितना मोटा कपड़ा मैं पहने हूँ, इससे भी मोटा कपड़ा इंग्लैंडके राजघरानोंमें पहना जाता था। मुक्त व्यापारकी नीति तो उसने अभी—अभी अपनाई है। उस नीतिको अपनानेके पीछे जो कारण थे वे निश्चय ही बुरे नहीं हैं। किन्तु उस नीतिमें जो दोष थे उनके कारण इंग्लैंडको एक विशाल जहाजी बेड़ा रखनेका भार अपने ऊपर लेना पड़ा और इस भारके नीचे इंग्लैंड दबा हुआ है। इंग्लैंडने मुक्त व्यापारकी नीति अपनाई; किन्तु अब वह फिर विपरीत दिशामें मुड़ रहा है। श्री जोज़ेफ चैम्बरलेन मुक्त—व्यापारकी नीतिका विरोध करते—करते मर गये और वह दिन जल्दी ही आयेगा जब इंग्लैंडको या तो इस नीतिका त्याग करना पड़ेगा या गृह—युद्धका सामना करना होगा ।

यदि हम यूरोपके व्यापारका धैर्यपूर्वक अध्ययन करें तो हम यूरोपका अन्धानुकरण करनेसे बच सकते हैं। जो राष्ट्र स्वयं प्रयोग कर रहा है, उसका अनुकरण करना भारत के लिए उचित नहीं है । भारतको स्वयं अपने ढंगसे प्रयोग करना चाहिए। श्री सिगविकके शब्दोंमें कहें तो भारतको यूरोपीय सभ्यताका स्याही सोख नहीं बनना चाहिए। उसे यूरोपकी उतरनसे अपना शृंगार नहीं करना चाहिए ।