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२४. पत्र : जमनादास द्वारकादासको

[ नडियाद ]
अगस्त १७, १९१८

भाईश्री जमनादास,[१]

मैं तीव्र इच्छा होते हुए भी बहुत बीमार होनेके कारण आपको जल्दी पत्र नहीं लिख सका और आज भी [ दूसरे से ही ] लिखवाना पड़ रहा है । अब भी मैं बिस्तर में पड़ा हुआ हूँ; परन्तु पत्र लिखवाने लायक स्थिति हो गई है। मेरे स्वास्थ्य में निस्सन्देह सुधार हो रहा है । इसलिए चिन्ता करनेका कोई कारण नहीं है ।

तुम्हारा मामला सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ । हेतुके शुद्ध होने भरसे असत्य सत्य नहीं बन सकता । जैसे शाहकी एक और चोरकी चार आँखें कही जाती हैं, वैसे ही सत्यका एक और असत्यके अनेक मार्ग होते हैं । और इन मार्गों के फेरमें पड़ा हुआ मनुष्य नष्ट हो जाता है । तिसपर अगर वह न्यासी [ ट्रस्टी ] हो, तो वह जिस न्यासकी रक्षाके लिए नियुक्त किया जाता है, उसको भी ले डूबता है। यह बात तुम स्वयं अपने और अन्य लोगोंके सैकड़ों अनुभवोंसे देख सकोगे । सत्यसे किसीका भी नुकसान हुआ हो, ऐसा अबतक न तो कभी हुआ है और न आगे कभी होगा। इस राजमार्गको तुम कैसे छोड़ सकते हो; छोड़ा कैसे ?

मोहनदासके वन्देमातरम्

[ गुजरातीसे ]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४

२५. पत्र : आनन्दशंकर ध्रुवको

[ नडियाद ]
अगस्त १७, १९१८

श्री आनन्दशंकरभाई,[२]

मेरे बारेमें आपकी चिन्ता आपके प्रेमकी सूचक है। मेरी स्थितिका सही चित्रण इस प्रकार है : मैंने सोमवार और मंगलवार तक असह्य, अथवा इससे भी उग्र विशेषण काममें लाया जा सके तो वैसा दुःख उठाया । इन दो दिनोंमें मैं लगभग बेहोशी की हालत में रहा और इस बीच हर समय चीखनेकी बड़ी इच्छा होती थी, मैं बड़ी मुश्किलसे अपनी


  1. जमनादास द्वारकादास; होमरूल लोगों के एक प्रमुख सदस्य।
  2. (१८६९-१९४२ ); संस्कृतके विद्वान् और गुजराती साहित्यकार; बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयके सह-उपकुलपति [ प्रो वाइस चांसलर ], १९२०-३७ ।

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