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पत्र : आनन्दशंकर ध्रुवको

इस इच्छाको दबा सका । बुधवारको अपेक्षाकृत कुछ शान्ति मिली और उसके बाद उत्त- रोत्तर हालत ठीक होती चली गई । कमजोरी बहुत ज्यादा है, इसलिए हिल-डुल तो कैसे सकता हूँ ? अभी कुछ दिन तो बिस्तरपर लेटे रहना ही पड़ेगा। लेकिन मुझे लगता है कि अन्तमें सब ठीक ही होगा । इस स्थितिमें आपने जो दवाका प्रश्न उठाया है वह एक तरफ रह जाता है। दवाके बारेमें मेरे विचार जानना ही चाहते हों, तो किसी दिन जरूर बताऊँगा । चाहे कोई भी डाक्टर हो, वह इतना तो स्वीकार करेगा कि जैसा रोग मुझे था उसका इलाज इतने कम समयमें किसी और उपचारसे करना लगभग असम्भव था। आपको निश्चिन्त करनेके लिए पूरा हाल लिखा है ।

आपके निर्णयको मैं पढ़ गया हूँ । मजदूर वर्षाकी नाई उसकी बाट जोह रहे थे; अब उन्हें शान्ति मिलेगी। और मैं स्वयं भी निस्सन्देह इसकी राह देख रहा था । यद्यपि उन्हें पैंतीस प्रतिशत वृद्धि मिलनी शुरू हो गई थी, फिर भी मैं यह मानता था कि आपके निर्णयसे उनकी स्थितिको अच्छा समर्थन मिलेगा ।

मेरी बीमारीका कारण क्या था, इस बारेमें मुझे आपको लिखना चाहिए । हम आश्रम में अक्सर एक भजन गाते हैं। शय्यापर पड़े-पड़े उसकी एक पंक्तिपर मैंने बहुत बार विचार किया है। श्रीकृष्ण उद्धवसे कहते हैं :

ऊधो कर्मनकी गति न्यारी "

सच है कि हम तो यही गा सकते हैं, क्योंकि बहुत-सी बातोंके बारेमें हमारा अज्ञान असीम है । परन्तु वास्तवमें कर्मोकी गति न्यारी नहीं है । वह तो सर्वथा सीधी और सरल है । हम जैसा बोते हैं, वैसा ही काटते हैं। जैसा करते हैं, वैसा भरते हैं। इस बीमारीके दौरान कदम-कदमपर अपनी भूल देख सका हूँ । मुझे स्वीकार करना ही चाहिए कि कुदरतने मुझे बहुत बार चेतावनी दी थी। मैंने उसपर ध्यान नहीं दिया और भूलपर-भूल करता गया। पहली भूलकी सजा मिली; दूसरी भूलकी सजा बढ़ी। इस प्रकार सजाओं में न्यायपूर्वक उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई । मैं बारीकीसे देख सकता हूँ कि प्रकृति-जैसा कोई दयालु नहीं है । प्रकृति ही ईश्वर है । ईश्वर ही प्रेम है और भूलके लिए प्रेमपूर्ण दण्ड दिये ही जाया करते हैं। मैं इस बीमारीमें बहुत सीख रहा हूँ ।

आपका,
मोहनदास

[ गुजरातीसे ]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४


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