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परिशिष्ट

परिशिष्ट १
गांधीजी के नाम रवीन्द्रनाथ ठाकुरका पत्र

शान्तिनिकेतन
अप्रैल १२, १९१९

प्रिय महात्माजी,

शक्ति, चाहे किसी भी रूपमें हो विवेकहीन होती है।—वह उस घोड़के समान है जो आँखोंपर पट्टी बाँधे गाड़ी खींचता है । वहाँ नैतिक तत्त्वका प्रतिनिधित्व केवल घोड़ा हाँकनेवाला ही करता है । निष्क्रिय प्रतिरोध एक ऐसी शक्ति है जिसका अपने—आपमें नैतिक होना आवश्यक नहीं है। इसका उपयोग सत्यके विरुद्ध भी किया जा सकता है। और सत्यके पक्षमें भी। किसी भी तरहकी शक्तिमें अन्तर्निहित खतरा उस समय और भी प्रबल हो जाता है जब उसके सफल होनेकी सम्भावना हो क्योंकि उस परिस्थितिमें उसमें लोभ भी शामिल हो जाता है ।

मैं जानता हूँ, आपकी शिक्षा शिवकी सहायतासे अशिव के विरुद्ध संघर्ष करनेकी है। किन्तु इस प्रकारका संघर्ष तो वीर ही कर सकता है। जो व्यक्ति क्षणिक आवेगके वशीभूत हो जाते हैं वे ऐसा संघर्ष नहीं कर सकते। एक पक्षकी बुराई स्वभावतः दूसरे पक्षमें बुराई उत्पन्न करती है; अन्याय हिंसाकी ओर ले जाता है और अपमान प्रतिहिंसाकी ओर। दुर्भाग्यसे एक ऐसी शक्तिको गति मिल चुकी है, हमारे अधिकारियोंने भय अथवा क्रोधके कारण हमपर वार किया और इसका स्पष्ट ही यह प्रभाव हुआ कि हममें से कुछने आक्रोशमें भरकर गुप्त मार्ग अपनाया और दूसरे बिलकुल भीगी बिल्ली होकर रह गये । इस संकटके समय आपने मानव-जातिके महान् नेताके रूपमें हमारे बीच आकर उस आदर्श के प्रति अपने उस विश्वासकी घोषणा की जिसे आप भारतका आदर्श मानते हैं । वह आदर्श गुप्त प्रतिकारकी इच्छासे उत्पन्न कायरता तथा भयसे त्रस्त होकर चुपचाप आत्मसमर्पण कर देनेवाली दोनों भावनाओंके विरुद्ध है । आपने उसी तरहकी बात कही है जैसी भगवान् बुद्धने अपने समयमें सर्वकालके लिए कही थी—

अक्कोधेन जिने कोधम् असाधुं साधुना जिने, "अक्रोधसे क्रोधको और अशिवको शिवसे जीतो ।”

शिवकी इस शक्तिको चाहिए कि वह निर्भय होकर ऐसी किसी भी सत्ताको अस्वीकार कर दे जो अपनी सफलताके लिए अपनी त्रास देनेवाली शक्तिपर निर्भर करती है और बिलकुल निहत्थे लोगोंपर विनाश करनेवाले अपने शस्त्रास्त्रोंका उपयोग करनेसे नहीं हिचकता । हमें निश्चित रूपसे समझ लेना चाहिए कि नैतिक विजय