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परिशिष्ट

सफलतापर निर्भर नहीं करती और न असफलता ही उसे उसके गौरव एवं महत्त्वसे वंचित करती है। जो लोग आध्यात्मिक जीवनमें विश्वास रखते हैं वे जानते हैं कि जिसके पीछे अतिशय भौतिक बल हो ऐसी बुराईका मुकाबला करना ही विजय है,- एक ऐसी विजय है जो प्रत्यक्ष रूपसे पराजित हो जानेपर भी आदर्शपर सक्रिय विश्वास रखनेसे उपलब्ध होती है।

मैंने सदैव यह अनुभव किया है और तदनुसार कहा भी है कि स्वतन्त्रताका महान् उपहार किसीको भी सेंतमेंत नहीं मिल सकता । हम उसे अपना तभी बना सकते हैं जब हमने उसे अपने बलपर हस्तगत किया हो। इसलिए जब भारत यह सिद्ध कर देगा कि वह नैतिकतामें उन लोगोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ है जो अपने विजयाधिकारके कारण उसपर शासन करते हैं, तभी उसे अपनी स्वतन्त्रताको प्राप्त करनेका अवसर उपलब्ध होगा । उसे सहर्ष कष्ट सहने के लिए तत्पर हो जाना चाहिए, यह तप है और महान् पुरुषका भूषण है । उसे श्रेयमें अटल विश्वास रखकर आध्यात्मिक बलको तिरस्कारकी दृष्टिसे देखनेवाले अहंकारका निडर होकर मुकाबला करना चाहिए।

और आप अपनी मातृभूमिमें ऐसे अवसरपर पधारे हैं जब उसे उसके ध्येयकी याद दिलाने, विजयके सच्चे मार्गपर ले जाने तथा उसकी वर्तमान राजनीतिको उसकी दुर्बलताओंसे मुक्त करनेकी आवश्यकता है। वर्तमान राजनीति कूटनीतिक छल-कपटकी पराई पोशाक पहनकर अकड़ दिखाती हुई ऐसा समझती है मानो उसने अपना मतलब सिद्ध कर लिया है। इसीलिए मेरी [ ईश्वरसे ] हार्दिक प्रार्थना है कि आपके पथमें कोई भी ऐसी बाधा न आये जिसके कारण हमारी आध्यात्मिक स्वतन्त्रताके कमजोर पड़नेकी आशंका हो और सत्यके लिए किया जानेवाला बलिदान केवल शाब्दिक आग्रहका रूप कभी धारण न करें; यह शाब्दिक आग्रह पवित्रनामोंकी आड़ में धीरे-धीरे आत्मप्रवचनाका रूप धारण कर लेता है।

ये कतिपय शब्द मैंने प्रस्तावनाके रूपमें लिखे; अब मुझे अनुमति दें कि में आपके उदात्त कार्योंके प्रति कविके रूपमें अपनी निम्नलिखित भावना व्यक्त करूँ -

(१)

इस विश्वासके साथ मुझे अपना मस्तक ऊँचा रखनेकी शक्ति दो कि तुम आश्रयके प्रति अविश्वासको हमारे आश्रय हो और सभी प्रकारके भय तुम्हारे इस प्रकट करते।

मनुष्यका भय ? किन्तु इस विश्वमें कौनसा मनुष्य, राजा अथवा राजाओंका राजा ऐसा है जो तुम्हारे सामने खड़ा हो सके ? कौनसी है वह अन्य शक्ति जिसने मुझे सम्पूर्ण काल और समस्त वास्तविकताओंसे इस तरह बाँध रखा हो ।

इस विश्व में कौन-सी शक्ति मुझसे मेरी स्वाधीनता छीन सकती है। क्योंकि तुम्हारे विशाल हाथ क्या कालकोठरीकी दीवारोंको पार करके बन्दी तक नहीं जा पहुँचते और आत्माको निर्बन्ध मुक्ति नहीं दे देते ?

कोई कंजूस जिस तरह अपनी निरर्थक धनराशिसे चिपटा रहता है क्या में उसी तरह मृत्युके डरसे अपनी देहसे चिपटा रहूँ ? क्या मेरी आत्मा अनन्त जीवनके तुम्हारे शाश्वत समारोह में सदैवके लिए आमन्त्रित नहीं है ?