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परिशिष्ट

क्या कोई भी नागरिक किसी भी मात्रा में एक क्षणके लिए भी अपनी विवेक- बुद्धि विधायकको सौंप सकता है ? यदि यह सम्भव हो तो हर आदमीको विवेक दिया ही क्यों गया है ? मेरी समझमें तो प्रत्येक व्यक्तिको मनुष्य पहले होना चाहिए और इसके बाद प्रजा । न्यायके प्रति लोगोंके मनमें सम्मान बढ़ाना वांछनीय है किन्तु कानूनके प्रति वैसा ही करना वांछनीय नहीं है । केवल एक ही दायित्व ऐसा है जिसे स्वीकार करनेका मुझे अधिकार है और वह है जिस कामको मैं उचित समझता हूँ उसे जब चाहूँ तभी कर लेना । इस कथनमें बहुत सचाई है कि संगठनों (कॉरपोरेशन) के अन्तरात्मा नहीं होती; किन्तु यदि किसी संगठनके सदस्योंका विवेक जागरूक है तो उस संगठनके भी अन्तरात्मा होगी। कानूनने कभी किसी व्यक्तिकी न्यायपरायणतामें तनिक भी वृद्धि नहीं की । कानून के प्रति आदरभाव रखनेके कारण सत्प्रवृत्ति रखनेवाले उदार व्यक्ति भी आये दिन अन्यायके साधन बना लिये जाते हैं । कानूनके प्रति इस अनुचित और अतिशय सम्मानकी भावनाका एक आम उदाहरण लीजिए : विभिन्न श्रेणियोंके सैनिकों और उनके नायकोंको हम सुव्यवस्थित पंक्तियोंमें दल बांधकर, अपनी इच्छाके खिलाफ, अपनी बुद्धि और अपनी अन्तरात्माकी आवाजके खिलाफ, पहाड़ियाँ चढ़ते और घाटियाँ उतरते, युद्ध-यात्रापर जाते देखते हैं।— यह वही तो है । चूँकि उनकी इच्छा, उनकी बुद्धि और उनकी अन्तरात्मा इस कार्य में उनके साथ नहीं होती इसलिए यह यात्रा उनके लिए बहुत विषम सिद्ध होती है - उनका हृदय उसकी बात सोचकर धड़कता है । उन्हें इस बात में कोई सन्देह नहीं होता कि उनका उद्दिष्ट कार्य गर्हित है और उनका अपना झुकाव तो शान्तिकी ओर है । अब सवाल यह है कि ये सैनिक हैं क्या ? क्या उन्हें मनुष्यकी संज्ञा दी जा सकती है ? क्या यह कहना ज्यादा सही नहीं होगा कि वे मनुष्य नहीं, किसी बेईमान सत्ताधारीकी सेवासे सम्बद्ध एक तरहके जंगम दुर्ग और अस्त्रागार हैं ?

इस प्रकार, ज्यादातर मनुष्य राज्यकी सेवा मानवोंकी तरह [ आत्मासे ] नहीं बल्कि यंत्रोंकी तरह [ केवल ] शरीरसे करते रहते हैं । और इसी प्रकारके मनुष्योंसे निर्मित होता है हमारा देशबल - स्थायी सेना, नागरिक सेना, जेलर, पुलिसके सिपाही आदि । बहुतसे मामलोंमें न्याय अथवा नैतिक भावनाके उपयोगमें स्वतंत्रता तो रहती ही नहीं है; बल्कि लोग अपनेको लकड़ी, मिट्टी और पत्थरका बना लेते हैं । और सम्भव है कि आगे कभी काष्ठवत् ऐसे आदमी तैयार किये जा सकें जिनसे यह काम हल हो जाये । इस प्रकारके व्यक्ति भुस-भरे पुतले या गन्दगीके ढेरसे अधिक आदर पाने योग्य नहीं हैं । उनका अगर कोई मूल्य है तो वैसा ही जैसा घोड़ों और कुत्तोंका हो सकता है। फिर भी ऐसे व्यक्ति अच्छे नागरिक समझे जाते हैं। दूसरे लोग, जैसे अधिकांश विधायक,राजनीतिज्ञ, वकील, मन्त्री और राजकीय कर्मचारी आदि, मुख्यतः अपनी बुद्धि द्वारा राज्यकी सेवा करते हैं और चूँकि वे शायद ही कभी नैतिक-अनैतिकका भेद करते हैं इसलिए उनके द्वारा ईश्वरकी सेवाकी जितनी सम्भावना है उतनी ही, अनजाने ही क्यों न हो, शैतानकी सेवाकी भी है । वीरों, देशभक्तों, शहीदों और व्यापक अर्थमें सुधारकोंके रूपमें बहुत ही कम लोग राज्यकी सेवा अपनी अन्तरात्मासे भी करते हैं । किन्तु उनकी सेवा राज्यके प्रतिरोधका स्वरूप धारण किये बिना नहीं रह सकती इसलिए राज्य साधारणतया उन्हें अपना शत्रु समझता है ।