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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सभी लोग क्रांतिके अधिकारको स्वीकार करते हैं । क्रान्तिका अधिकार अर्थात् राजनिष्ठासे इनकार करने और जब सरकारकी स्वेच्छाचारिता या अयोग्यता बहुत बढ़ जाये और असह्य हो जाये तब उसका प्रतिरोध करनेका अधिकार ।

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घर्षण सभी प्रकारके यंत्रोंमें होता है; और बुराईको सन्तुलित रखने में कदाचित् इसकी उपयोगिता भी खासी है। बहरहाल, उसे लेकर हो-हल्ला करना बहुत बुरी बात है किन्तु यदि घर्षण ही यंत्रपर हावी हो जाये और अत्याचार तथा लूटमार संगठित रूपसे चलने लगें तब तो मैं कहता हूँ, हमें ऐसा यन्त्र एक क्षण भी बर्दाश्त नहीं करना चाहिए ।

आज ईमानदार और देश-भक्तोंका क्या हाल है ? वे संकोचमें पड़े रहते हैं, खेद प्रकट करते हैं और एकाध बार दरख्वास्त भी दे देते हैं; किन्तु वे मन लगाकर ऐसे ढंगसे कुछ भी नहीं करते जिसका कोई असर पड़ कर रहे। वे इस बातकी प्रतीक्षा करते हुए बैठे रहेंगे कि कोई भला आदमी आकर दुःखका निवारण करे ताकि उन्हें परेशानी न हो। बहुत हुआ तो वे [ सत्यके पक्षमें ] मतदान कर देंगे, दबी जबानसे उसका समर्थन कर देंगे और वह उन्हें उनके पाससे अपने पथपर बढ़ता हुआ दिखा तो अपनी शुभकामना व्यक्त कर देंगे । संसार भर में हजारमें नौ सौ निन्यानवे सत्यकी बातें करनेवाले होते हैं, उसपर आचरण करनेवाला एक होता है । [ सत्यके इन तमाम ] कोरे संरक्षकोंके बजाय सत्यके वास्तविक स्वामीसे सम्बन्ध बनाना अधिक आसान है ।

सही चीजके लिए मतदान कर देना उसके लिए कुछ करना नहीं कहला सकता । इसका तो इतना ही अर्थ है कि आप लोगोंके सामने दुर्बलताके साथ अपनी यह इच्छा—मात्र व्यक्त करते हैं कि विजय उक्त सिद्धान्तकी होनी चाहिए। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति इसे भवितव्यताकी दयापर नहीं छोड़ सकता ।

जरूरत ऐसे आदमीकी है जो सचमुच आदमी हो— मर्द हो; मेरे पड़ोसीके शब्दों में ' जिसकी रीढ़में आप अपना पंजा नहीं फंसा सकते' ? हमारे आँकड़े सही नहीं हैं; मनुष्य-संख्या बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई है। इस देशमें प्रति हजार वर्ग मील कितने आदमी हैं ? मुश्किलसे एक ।

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सिद्धान्त के आधारपर व्यवहार, सही वस्तुका दर्शन और आचरण चीजोंका सारा नक्शा ही बदल देते हैं। ऐसा आचरण वस्तुतः क्रान्तिकारी होता है और उसके फलस्वरूप परिस्थितियाँ जैसी थीं वैसी बिलकुल नहीं बच रहतीं। यह न केवल राज्यों और धर्मसंस्थानोंमें पक्ष-विपक्ष पैदा कर देता है बल्कि परिवारोंको विभाजित कर देता है; यहाँ तक कि स्वयं व्यक्तिकी इकाईको तोड़ देता है और उसके भीतरकी आसुरी और दैवी प्रवृत्तियों में द्वन्द्व प्रारम्भ हो जाता है।

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अन्यायपूर्ण कानूनोंका अस्तित्व है तो क्या हमें उनके अनुसार चलकर चुप बैठ रहना चाहिए; उन्हें सुधारनेकी कोशिश करनी चाहिए और अपनी इस कोशिश में