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परिशिष्ट

तन्त्रकी ओर बढ़ने में जो प्रगति है वह प्रगति व्यक्तिके व्यक्तित्वके प्रति सच्चे आदरकी दिशा में ही है । यहाँतक कि चीनी दार्शनिकने भी व्यक्तिको ही साम्राज्यका आधार माना है। क्या गणतन्त्रके इस रूपको शासन-तन्त्रमें संभाव्य सुधारकी अन्तिम सीढ़ी माना जा सकता है। क्या उस सीढ़ीसे भी एक कदम आगे बढ़कर मनुष्य के अधिकारोंकी स्वीकृति और संगठन सम्भव नहीं है ? जबतक राज्य व्यक्तिको अपनेसे बड़ी तथा स्वतन्त्र शक्तिके रूपमें स्वीकार नहीं करता और उसके साथ तदनुसार व्यवहार नहीं करता तबतक राज्य वास्तवमें स्वतन्त्र और प्रबुद्ध कभी नहीं हो सकता। उसे मानना चाहिए कि उसकी शक्ति और सत्ताका स्रोत व्यक्ति ही है । मैं अवश्य ऐसे राज्यकी कल्पना करके अपना मन बहलाता हूँ, जो अन्तमें सभी व्यक्तियोंके प्रति न्यायपरायण हो सकेगा, प्रत्येक व्यक्तिके साथ पड़ोसी-जैसा आदरपूर्ण व्यवहार करेगा; यहाँतक कि वह ऐसे लोगोंको भी अपनी शान्तिमें बाधक नहीं समझेगा जो पड़ोसी और साथीकी तरह रहते हुए उससे अलग रहते हैं; जो उसमें शामिल तो नहीं होते किन्तु उसके कार्यों में बाधक भी नहीं होते। जो राज्य इस हदतक सफल हो जाये और जो अपनी इस सफलताकी पूर्ण परिणतिपर प्राप्त फलको खुशीसे झर जाने दे, वह दुनियाको और भी अधिक पूर्ण और प्रशस्त राज्यका निर्माण करनेके लिए तैयार कर देगा। मैंने इसकी कल्पना भी की है कि वह राज्य कैसा होगा ? किन्तु उसे अभीतक कहीं देखा नहीं है ।

नेशनल आर्काइव्ज़ ऑफ इंडिया : होम : पॉलिटिकल—बी : फरवरी १९२०:संख्या : ३७३

परिशिष्ट ३
सत्याग्रहपर प्रश्न

[ अप्रैल १७, १९१९ के पूर्व ][१]

महोदय,

हाल में ही आपके नामसे एक वक्तव्य प्रकाशित हुआ है। उसमें दिये गये कुछ मुद्दोंको हम पूरी तरह नहीं समझ सके। इसलिए यदि आप कृपया उनपर प्रकाश डालें तो हम आपका आभार मानेंगे ।

(१) आप अपने वक्तव्यमें कहते हैं- "जो सत्याग्रहमें शरीक होते हैं उन्हें हर हालत में हिंसासे अलग रहना है। ईंट-पत्थर नहीं फेंकने हैं और न किसीको किसी अन्य प्रकारसे चोट पहुँचानी है । हम यह जानना चाहेंगे कि 'सत्याग्रह में शरीक होनेवाले लोगों में " क्या आप सत्याग्रहियोंसे सहानुभूति रखनेवाले असत्याग्रहियोंको भी शामिल करते हैं ? जैसा कि जाहिर है, यदि ऐसा है तो दूसरे पक्ष द्वारा हिंसा प्रारम्भ करनेपर क्या वे भी सत्याग्रहियोंकी तरह चलनेके लिए बाध्य हैं ? यह नहीं समझ

 
  1. देखिए " सत्याग्रह माला-३, ११-४-१९१९ ।