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परिशिष्ट

वे इसे जीवनका ऐसा नियम नहीं समझते जिसे स्वीकार करना प्रत्येकके लिए उचित हो। इसे स्वीकार करना उन्हीं लोगोंके लिए उचित है, जो गवाही देनेसे इनकार करते हुए अपराधीको अधिकारियोंके सामने अपना अपराध पूर्णरूपमें स्वीकार कर लेनेको प्रेरित करने में कुछ भी उठा नहीं रखेंगे; और जो स्वयं अपने मामलोंमें सिद्धान्ततः किसी प्रकारकी कानूनी सहायता नहीं लेते। श्री गांधीके ये विचार बहुत पुराने हैं - १८९७ से भी पहलेके, हालांकि उन्होंने इसी वर्ष पहले-पहल उनपर ऐसे ढंगसे अमल किया जिससे (दक्षिण आफ्रिकाके) लोग इनसे अवगत हो पायें।

इसलिए श्री गांधीने गवाही देनेके सम्बन्धमें कोई आदेश नहीं दिया है, और न गवाही देने से इनकार करना आश्रमका बुनियादी नियम है । अगर कोई सदस्य गवाही दे भी तो उसे निष्कासित नहीं कर दिया जायेगा । यहाँतक कि श्री गांधी उससे सवाल-जवाब भी नहीं करेंगे। इस मामलेको पूर्णरूपसे सम्बन्धित व्यक्तिकी अन्तरात्मा पर छोड़ दिया गया है, और श्री गांधी स्वयं अत्यन्त मनोमन्थन और प्रयत्नके बाद (१८९७ के पहले) इस नतीजेपर पहुँचे थे । यही कारण था कि १९०८ में उन्होंने वकालत छोड़ दी। यह सवाल (जो सम्बन्धित व्यक्तिकी अन्तरात्माका सवाल है) स्वयं में तो नाजुक है ही, लेकिन साथ ही जो लोग सत्याग्रहके लिए आवश्यक संयमको पूरी तरह प्राप्त नहीं कर पाये हैं, श्री गांधी उनके द्वारा बिना समझे बूझे इस सिद्धान्तको स्वीकार कर लेनेके खतरेको भी महसूस करते हैं।

श्री गांधीने स्पष्ट रूपसे बताया कि इस मामलेमें उनके विचार किसी भी तरह किसी ऐसे संकोचकी भावनासे प्रभावित नहीं हैं कि भीड़के उपद्रवोंके लिए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूपसे वे ही जिम्मेदार हैं। उनके ये विचार एक सामान्य सिद्धान्तसे प्रेरित हैं, जो अहिंसाके सिद्धान्तका ही स्वाभाविक परिणाम है। उनकी इच्छा यह है कि अपराधीको सजा अवश्य मिलनी चाहिए, लेकिन उसे यह सजा स्वेच्छया आगे बढ़कर स्वीकार करनी चाहिए।

श्री गांधी यह स्वीकार करते हैं कि इस सिद्धान्तके अनुसार उनके और उनके अनुयायियों के लिए तो एक नियम है और शेष दुनियाके लिए दूसरा नियम, किन्तु वे इसे इसलिए स्वीकार करते हैं कि यह अनिवार्य है ।

[ अंग्रेजीसे ]

नेशनल आर्काइव्ज़ ऑफ इंडिया : होम : पॉलिटिकल - ए: अगस्त १९१९ : संख्या २६१-२७२ और के० डब्ल्यू०