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३०. पत्र : एन० एम० समर्थको

अगस्त २०, १९१८

प्रिय श्री समर्थ,

आपके पत्रके लिए बहुत आभारी हूँ । निश्चय ही धार्मिक उपचारमें मेरा विश्वास है । ज्यादातर मैंने इसीका आश्रय लिया है । किन्तु उसीके साथ मेरा प्राकृतिक चिकित्सा और उपवासमें भी विश्वास है । प्राकृतिक चिकित्सा जल और एनिमाकी चिकित्सा है । भोजनके रूपमें केवल फलोंका रस -खास तौरपर सन्तरेका रस लेता हूँ। मुझे यह स्वीकार करनेमें संकोच नहीं कि जिस हदतक प्राकृतिक चिकित्साका सहारा लेता हूँ, उस हदतक शुद्ध धार्मिक उपचारमें विश्वासकी कमी मानी जानी चाहिए। जब में यह समझ जाता हूँ कि प्रकृतिका नियम भंग करनेसे में इस रोगमें फँसा हूँ, तब केवल धार्मिक उपचारसे चिपटे रहनेकी मेरी हिम्मत नहीं पड़ती।

मुझे खेद है कि मैं कल न तो आपके साथ रह सकूंगा और न अपना नाम ही उस आन्दोलनके साथ सम्बद्ध रख सकूंगा । मैं दोनों आन्दोलनोंसे अलग रहना चाहता हूँ, क्योंकि मैं जो विचार रखता हूँ वे दोनोंमें से किसी भी दलको मंजूर नहीं हो सकते । मेरा तो यह खयाल है कि इस अवसरपर सभी नेताओंको अपनी लगभग सारी अन्य प्रवृत्तियाँ बन्द करके पूरी शक्ति सैनिक भरतीके काममें लगानी चाहिए। मैं जानता हूँ कि गरम दलवाले मुझसे सहमत नहीं हैं । और मैं नहीं मानता कि नरम दलवाले मैं जिस हदतक जाना चाहता हूँ, उस हदतक जानेके लिए तैयार हैं। में मोटे तौरपर मॉण्टेग्यू- चैम्सफोर्ड योजनाको स्वीकार तो करता हूँ, किन्तु उसे स्वीकार्य बनानेके लिए उसमें कुछ हेर-फेर करानेका आग्रह नहीं छोड़ेंगा । जितना मुमकिन हो सकता है उतना सब कर चुकने के बाद भी अगर उसमें हेर-फेर न किया जाये, तो मैं इस योजनाको विफल बनानेकी कोशिश करूँगा । मुझे अपने संशोधन मंजूर करानेके लिए, जिसे आमतौर पर 'पैसिव रेजिस्टेंस' कहा जाता है, उसका आश्रय लेनेमें भी हिचकिचाहट नहीं होगी । नरम दलवाले यह शर्त स्वीकार नहीं करेंगे । इसलिए मुझे धीरजके साथ इन्तजार करते हुए अकेले ही अपना अलग रास्ता तय करना पड़ेगा ।

हृदयसे आपका,

मो० क० गांधी

[ अंग्रेजीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे । सौजन्य : नारायण देसाई

१. १९१४ में इंग्लैंड भेजे गये कांग्रेस शिष्टमंडल के एक सदस्य ।