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३३. पत्र : डॉ० पी० सी० रायको

अगस्त २७, १९१८

प्रिय डॉक्टर राय,[१]

आपने मेरी बीमारीका हाल सुना होगा। मुझे पेचिशकी बहुत सख्त शिकायत हो गई थी। बीमारीसे तो मैं अच्छा हो गया लगता हूँ; परन्तु कमजोरीके कारण लस्त हो गया हूँ। मैं मुश्किलसे बिस्तरमें उठकर बैठ पाता हूँ और बिस्तर में भी बहुत देर तक नहीं बैठा रह पाता । मेरे सामने इस टूटे हुए शरीरको दुबारा बनानेका सवाल है । दूध और उससे बननेवाले पदार्थ में कितने ही वर्षोंसे नहीं ले रहा हूँ । उन्हें जीवनपर्यंत न लेनेका मेरा व्रत है । इसलिए दूध और मक्खनका काम देनेवाली चीजोंकी मुझे जरूरत है। जबतक मुझमें शक्ति थी, तबतक मूंगफली, अखरोट और दूसरी तरहकी गिरीसे मेरा यह काम चल जाता था । किन्तु अब मेरा आमाशय बहुत नाजुक हो गया है और इस गिरीसे निकलनेवाली चिकनाई बहुत भारी पड़ती है। दूध और घीका स्थान लेनेवाली चीजें निश्चित रूपसे मुझे वनस्पतिजन्य पदार्थोंमें से चाहिए । पहले मैंने खोपरे और बादामका दूध इस्तेमाल किया है। इनका शरीरपर जो असर होता है, वह गायके दूधसे बिलकुल ही भिन्न है । क्या आपके ध्यानमें घी या मक्खन और दूधका स्थान लेनेवाला कोई वनस्पतिजन्य पदार्थ है ? हो, तो कृपा करके बताइये | अधिक अच्छा तो यह होगा कि कोई ऐसा पदार्थ मिल सके, तो मुझे भेज दीजिए। मैंने सुना है कि उत्तरमें महुएके कोमल बीजोंसे घी बनाया जाता है। वह साधारण घी जैसा नहीं होता, परन्तु जैतूनके तेल जैसा ही होता है। इस मामलेमें हो सके, तो मुझे जानकारी दीजिए। मुझे दुःख हो रहा है कि इतने दिनोंमें मुझे आपको एक ही पत्र लिखनेका अवसर मिला और वह भी केवल अपने स्वार्थके लिए आपको तकलीफ देनेके लिए। बने तो इसके लिए मुझे क्षमा करें।

हृदयसे आपका,

[ अंग्रेजीसे ]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।
सौजन्य : नारायण देसाई


  1. डॉ० प्रफुल्लचन्द्र राय (१८६१ - १९४४ ); सुप्रसिद्ध रसायन शास्त्री और देशभक्त।

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