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३६. पत्र : सी० एफ० एन्ड्रयूजको

अगस्त २९, १९१८

प्रिय चार्ली,

मुझे तकलीफ तो जरूर हुई, परन्तु जितनी चाहिए थी, उतनी नहीं। मुझे अपनी इस बीमारीके कारण बिल्कुल साफ समझमें आ गये हैं और वे मेरे पक्षमें नहीं जाते। उनसे यह जाहिर होता है कि अपनी कमजोरियाँ दूर करनेकी अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद मैं अभीतक कितना कमजोर हूँ। इस बीमारीसे यह बात और भी स्पष्ट हो गई कि हम किस तरह लगातार प्रकृतिके जाने-माने नियम तोड़ते रहते हैं । दूसरे किसी लालचको जीतना इतना मुश्किल नहीं है, जितना जीभके स्वादको; और इसी कठिनताके कारण हम उसपर बहुत विचार ही नहीं करते। मेरी रायमें जीभको जीत लेना सब-कुछ जीत लेना है । परन्तु इस बारेमें अधिक फिर कभी लिखूंगा। मेरी तबीयत धीरे-धीरे सुधरती जा रही है। इस बीमारीमें मैंने शान्ति कभी नहीं खोई। मेरी कोई चिन्ता न करना। मैं नहीं चाहता कि तुम किसी भी कारणसे शान्तिनिकेतन छोड़ो। मेरा तो खयाल है कि तुम और गुरुदेव अपने जीवनका सर्वोत्तम कार्य कर रहे हो। असली काव्य तुम इसी समय लिख रहे हो । यह जीवन्त काव्य है। काश ! गुरुदेवके, और तुम्हारे भी, प्रवचन सुननेका जो लाभ वहाँके सौभाग्यशाली विद्यार्थियोंको मिल रहा है, वह लाभ लेने में शान्तिनिकेतन आ सकता और उन विद्यार्थियोंकी पंक्तिमें बैठ सकता ।

तुम्हारा,
मोहन

[ अंग्रेजीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य : नारायण देसाई

३७. डॉ० प्राणजीवन मेहताको लिखे पत्रका अंश

[ अहमदाबाद ]
अगस्त २९, १९१८

आपने मालवीयजीके[१][कांग्रेसमें] एकता करानेके अन्तिम प्रयत्नके बारेमें जो समाचार दिया है, यह अखबारों में भी है । यह तो आशा भी थी कि पण्डितजी ऐसा कोई प्रयत्न करेंगे। परन्तु मुझे भय है कि अब सारे प्रस्ताव कमजोर होंगे। सहज विचारसे ही यह निश्चय हो जाना चाहिए कि भले ही कम माँगा जाये, परन्तु उसके पीछे

  1. १.मदनमोहन मालवीय (१८६१ - १९४६); बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयके संस्थापक; शाही परिषद्के सदस्य; दो बार कांग्रेसके अध्यक्ष निर्वाचित।