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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


संकल्प होना जरूरी है। जनताको ज्यों-ज्यों और जिस हद तक यह भान होता जायेगा कि वह अपनी माँग पूरी कराने में समर्थ है, त्यों-त्यों और उस हद तक वह ऊँची उठती जायेगी। यह आकाश-कुसुम माँगने जैसी बात नहीं है,बल्कि अत्यन्त व्यावहारिक है।

[ गुजरातीसे ]

महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४

३८. पत्र : देवदास गांधीको

[ अहमदाबाद ]
अगस्त २९, १९१८

चि० देवदास,

लम्बी प्रतीक्षा करनेके बाद तुम्हारे दो पत्रोंके दर्शन आज एक साथ हुए। मेरा स्वास्थ्य सुधरता जा रहा है। चिन्ताका तो बिलकुल कोई कारण नहीं है। आज तबीयत बहुत अच्छी है। मैंने शुरूसे आखिर तक स्वास्थ्यपर अपने नियन्त्रणको नहीं खोया है। और परिणामके बारेमें तनिक भी चिन्ता नहीं की। बीमारीमें पीड़ा होनेका भय लगता था, परन्तु मौतसे तो सपने में भी भय नहीं लगा। जब अधिक पीड़ा होती थी, तब जी चाहता था अब इससे छूट जाऊँ तो कितना अच्छा हो। जबतक जीवित हूँ तबतक कर्म करता रहूँ. यह दूसरी बात है। परन्तु कर्म करनेके लिए जीवित रहनेकी आकांक्षा नहीं है। आकांक्षा मोक्षकी हो सकती है, परन्तु मोक्ष माँगनेसे नहीं मिलता। उसके लिए योग्यता चाहिए।

मैं तुम्हारे कार्यको इतना महत्त्वपूर्ण मानता हूँ कि तुम उसे मेरी तबीयत देखने [ आने ] के लिए भी नहीं छोड़ सकते। मेरी सेवा-शुश्रूषा भली-भाँति की जाती होगी यह तो तुम्हें मान ही लेना चाहिए। अब मुझे बिलकुल नहीं लगता कि मैं फ्रांस जाऊँगा। अब तो ऐसा महसूस होता है कि लड़ाईमें बिलकुल जाना ही नहीं होगा। फ्रांस के रणक्षेत्रमें दिन-प्रतिदिन मित्र राष्ट्रोंकी जीत होती दिखाई देती है। इस स्थितिमें ऐसा नहीं लगता कि हम वहाँ ले जाये जायेंगे। हमें इसका पता महीने बीस दिनमें लग जायेगा। सम्भव है, जाना हो, फिर भी अब फ्रांस जानेकी आशा तो छोड़ ही देनी चाहिए। हो सकता है, मैसोपोटेमिया जाना पड़े।

आनन्दशंकर भाईने 'हिन्दू-धर्मकी बाल-पोथी' लिखी है। परन्तु वह ऐसी है, जिसे वृद्ध भी दिलचस्पीसे पढ़ सकते हैं और ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। मुझे तो यह ग्रन्थ अलौकिक मालूम होता है। भाई महादेव[१]इसे मुझे रोज सुबह पढ़कर सुनाते हैं। मैं तो उसमें रसपान कर रहा हूँ । दूसरी भाषाओंमें ऐसी छोटी पुस्तकें कम होंगी। इसमें आनन्दशंकर भाईके व्यापक अध्ययन और मननका सार आ गया है । तुम इसे बार-बार

  1. १. महादेव हरिभाई देसाई (१८९२ - १९४२); गांधीजींके निजी सचिव। देखिए खण्ड १३, पृष्ठ ५२१।