४६. पत्र : करसनदास चितलियाको
[ अहमदाबाद ]
अगस्त ३१, १९१८
भाई केसरीप्रसादके त्यागपत्रकी बात सुनकर मुझे दुःख हुआ। उनकी कांग्रेसमें जानेकी तीव्र इच्छा थी। मेरे साथ उनकी बातचीत भी हुई थी। परन्तु मैंने उनसे कहा था कि अगर छुट्टी न मिले,तो वे अपनी इच्छाको दबायें और जैसा निर्देश दिया जाये वैसा करें। परन्तु वे अपनी इच्छाको नहीं दबा सके। मुझे भय है कि भाई केसरीप्रसादको असन्तोष तो रहता ही था। समाजमें[२]उनकी प्रवृत्तियोंके लिए अवकाश न था। कांग्रेस में जानेकी मनाहीसे उनके असन्तोषकी सीमा न रही। गुजरातियोंके बिना या अन्य व्यक्तियोंके बिना समाज निर्मूल हो जाये, सो बात नहीं। समाज तो अविचल [ चलता] रहेगा। शास्त्रियर[३]जैसे उच्च चरित्रके नेता अपने-जैसे अन्य लोगोंको खींचे बिना नहीं रह सकते। अगर ईश्वर शास्त्रियरको दीर्घायु देगा, तो भारतमें उनकी कीमत भविष्यमें आँकी जायेगी । अनेक प्रकारकी प्रवृत्तियाँ चल रही हैं जिनमें लोग अपनी इच्छा के अनुसार आकर्षित होते हैं। इससे एक प्रकारका झूठा असन्तोष पैदा हो गया है। अन्तमें निराशा तो होगी ही। तब शास्त्रियर-जैसे पुरुषोंका स्मरण किया जायेगा और पीड़ित लोग उनका सहारा ढूंढ़ेंगे एवं उनसे सान्त्वना प्राप्त करेंगे।
मोहनदासके वन्देमातरम्
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४