तुमने उसे वह प्रमाणपत्र दे दिया, जिसकी वह पात्र नहीं। बेशुमार भूलें, बेहद खुशामद और विज्ञापन, इन सब बातोंका तो तुम प्रचार नहीं करना चाहते न? मैं इस पुस्तकको ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहता हूँ। उसकी बड़ी-बड़ी भूलें तुम्हारे लिए नोट करके रखूँगा। लेखकने अपना नाम नहीं दिया, इसमें भी मुझे उसका कोई गुण दिखाई नहीं देता। जिनके निकट वह जाहिर होना चाहता है उनसे तो वह अज्ञात नहीं रहता। यह प्रस्तावना तुम्हारी भलमनसाहत जाहिर करती है। तुम हिन्दुस्तानी बन गये हो और जैसा लॉर्ड विलिंग्डनने[१]हाल ही में कहा है, इस तरह इनकार करनेकी तुममें हिम्मत नहीं है। मैं तो खूब चाहता हूँ कि इस मामलेमें तुम अपना अंग्रेज-स्वभाव ही रहने दो और जहाँ इनकार करने जैसी बात हो, वहाँ इनकार ही करो। मैं तो मानता हूँ कि कभी-कभी प्रेमका यह अधिकार होता है कि वह कड़ाईके साथ 'न' कह सके। मैं उपदेश नहीं देना चाहता पर ऐसे मामलोंमें तुम्हें सुधरना चाहिए। नहीं तो जितने बदमाश मुझे मिलेंगे उन सबको मैं तुम्हारे पास भेज दूंगा; फिर उनके और गुरुदेवके साथ तुम अपना हिसाब निपटा लेना।
तुम सबको प्यार,
तुम्हारा,
मोहन
- महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।
- सौजन्य : नारायण देसाई
४९. पत्र : शंकरलाल बैंकरको
[ अहमदाबाद ]
सितम्बर ७, १९१८
मैं अनसूयाबेनको[२]लिखे गये पत्रसे देखता हूँ कि तुमने मुझे लिखते समय अपने स्वास्थ्यके बारेमें बहुत छिपाया है। ऐसा करनेकी जरूरत नहीं थी। मैं यह चाहता हूँ कि तुम डॉक्टरोंकी दवाओंपर निर्भर रहकर शरीरके प्रति अपने बरतावमें अनुचित छूट न लो। यह बात मेरे जीवनके अनुभवसे मेरे मनमें अधिक-अधिक घर कर गई है। मैंने जीभके वश होकर शरीरके प्रति बरतावमें अनुचित छूट ली और उसका उचित दण्ड भोग रहा हूँ। मेरा विश्वास है कि ९९ फीसदी बीमारियोंका यही इतिहास है। मैं स्वीकार