करता हूँ कि यह शारीरिक संयम बहुत कठिन है, फिर भी पुरुषार्थ इसीमें निहित है। सारी दुनियाको हराना हमारे शरीरमें रहनेवाले शत्रुओंको हरानेकी अपेक्षा अधिक आसान है। इसलिए जो मनुष्य इन्हें पराजित कर देगा, उसके लिए पहला काम तो बहुत सरल है। जो स्वराज्य मुझे,तुम्हें और सबको लेना है, वह सच पूछा जाये तो यहीं है। अधिक क्या लिखूँ? सब-कुछ लिखनेका अभिप्राय तो इतना ही है कि तुम्हें देशकी जो सेवा करनी है, वह इसी शरीरसे करनी है। तुम्हारी भावनाएँ ऊँची हैं, किन्तु उचित आत्मिक बलके अभावमें ऊँची-ऊँची भावना भी व्यर्थ है।
मोहनदासके वन्देमातरम्
महादेवभाईनी डायरी,खण्ड ४
५०.पत्र : डॉ० पी० सी० रायको[१]
सितम्बर ९, १९१८
दूधका प्रश्न मेरे लिए इतना सीधा नहीं है, जितना आपने बताया है। यह बात नहीं कि बछड़ोंके प्रति मेरा सद्भाव मुझे बीमारीमें दूध लेनेसे रोकता है। बल्कि मैंने बीमारीमें भी दूध और उससे बनी हुई चीजें न लेनेका व्रत ले लिया है और मेरे खयालसे जान-बूझकर, निश्चयपूर्वक लिया हुआ व्रत तोड़नेसे तो मर जाना अधिक अच्छा होगा। इस समय जो परिणाम मैं भुगत रहा हूँ,वे व्रत लेते समय भी मेरे सामने थे। उस समय भी मैं जानता था कि दूधका स्थान लेनेवाला कोई और पदार्थ जुटाना अत्यन्त कठिन है। क्या आप अपने बताये हुए तेलोंमें से किसीको इतना विशुद्ध बना सकते हैं कि वह सुपाच्य बन जाये? आप जानते हैं कि अमेरिकाके रसायन-शास्त्रियोंने बिनौलेके तेलको इसी तरह साफ किया है। बिनौलेका तेल विशुद्ध बनाये बिना खाया नहीं जा सकता, परन्तु अब लोग उसे बेधड़क खाते हैं। मैं यह नहीं कहना चाहता कि जितना मैं चाहता हूँ, इस हद तक वे उसे विशुद्ध कर सके हैं, परन्तु यह तो अनुपातका सवाल हुआ।
मो० क० गांधी
- महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।
- सौजन्य : नारायण देसाई
- ↑ १.डॉ० रायके उस पत्रके उत्तरमें जिसमें उन्होंने कहा था कि दूधके कुछ तव तो अन्य पदार्थोंमें मिल जाते हैं,पर दूधकी कमी किसी दूसरे पदार्थसे पूरी तरह पूरी नहीं की जा सकती। डॉ० रायने एक पुराने मित्रके नाते गांधीजीसे दूध शुरू करनेका आग्रह किया था।