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देवदास गांधीको लिखे पत्रका अंश


है कि रूढ़ि - धर्मका जरा भी आदर नहीं किया जाना चाहिए। शुद्ध धर्म अचल है, रूढ़ि-धर्म समयानुसार बदला जा सकता है। 'मनुस्मृति' में कहे हुए कुछ वचनोंके अनुसार यदि आज हम चलें, तो उससे केवल अनीति ही फलित होगी। ऐसे वचनोंका हमने चुपकेसे त्याग ही कर दिया है।

मोहनदासके प्रणाम

गांधीजीके हस्ताक्षरयुक्त मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० २७९३ ) से।
सौजन्य :पटवारी

५२. देवदास गांधीको लिखे पत्रका अंश

[ अहमदाबाद ]
सितम्बर ९, १९१८

तुम तो जानते ही हो कि मैं हमेशासे कमजोर लोगोंके लिए दालके उपयोगके विरुद्ध हूँ। तुम तेलके सम्बन्धमें मेरे अपने डरको भी जानते हो । सभी डॉक्टरोंने मूँग और मूँगका पानी लेनेके लिए और तेलका उपयोग करनेके लिए भी कहा था । दूध न लेनेकी प्रतिज्ञाके कारण क्षीण शरीरको किसी भी चिकनाईके बिना और उस तत्त्वके बिना जिसे 'प्रोटीन' कहते हैं, [ स्वस्थ ] बनाना कठिन है। दूधकी 'प्रोटीन' और चिकनाई रक्तमें तुरन्त घुल सकती है। किन्तु तेलकी चिकनाईमें यह गुण नहीं हैं। हर दालमें प्रोटीन रहती है। परन्तु दालोंकी प्रोटीन तो पचती ही नहीं है। फिर भी ऊपर लिखे अनुसार दोनों चीजें ली गई। मुझे लगता है, यह मुझसे भूल हुई; और दूधकी जगह ले सकनेवाली ऐसी किसी भी चीजके ढूंढ़ने में इस तरहकी भूलें होती ही रहेंगी। किसी प्रकारके तेलके बिना हरगिज काम नहीं चलनेवाला है, किन्तु इसके परिमाण [ का निश्चय ] किया ही जाना चाहिए। उसे ढूँढ़ने में भूलें अवश्य होंगी और कभी-कभी पीछे भी हटना पड़ेगा। {{Left|[ गुजरातीसे ]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४