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पत्र : सरोजिनी नायडूको


सोराबजीकी[१] मृत्युकी याद करो, डाक्टर जीवराज मृत्युशय्यापर पड़े हैं इस ध्यान करो और यह सोचो कि सर रतन ताता[२] भी गुजर गये हैं । जब यह शरीर इतना क्षणभंगुर है, तब यहाँ उत्पात किसलिए किया जाये ? रुपयेके पीछे भाग-दौड़ क्यों की जाये ? साधारण, परन्तु सतत प्रयत्नसे जितना धनोपार्जन किया जा सके, उतना करो। परन्तु अपने मनमें इतना निश्चय कर लो कि तुम धन कमानेके लिए सत्यका मार्ग कभी नहीं छोड़ोगे। तुम जो निश्चय कर सको, वैसा करके प्रसन्नतापूर्वक धनोपार्जन करो ।

[ गुजरातीसे ]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४

५४. पत्र : सरोजिनी नायडूको[३]

सितम्बर २०, १९१८

प्रिय बहन,

आपने जो सवाल पूछे हैं, उनसे जान पड़ता है कि मेरी शर्मनाक हालत यानी बीमारीकी बात आपको मालूम है । मेरी तबीयत अब सुधरती जा रही है, परन्तु बरामदे में कुछ मिनट टहल सकनेके सिवा ज्यादा चलनेकी शक्ति मुझमें अभी नहीं आई है। आपके साथ पूर्णिया जानेकी मुझे बहुत ही इच्छा होती है, क्योंकि वहाँके लोग मेरी उपस्थिति चाहते हैं, परन्तु यह मेरे लिए असम्भव है। फिर भी मैं आशा करता हूँ कि आप ठीक ढंगसे काम करेंगी और अपना भाषण[४] हिन्दी या उर्दू--जिसे भी आप राष्ट्रभाषा कहें--में देंगी। आपके उदाहरणसे वहाँके युवक अपनी मातृ- भाषाके विकासका महत्त्व समझेंगे, क्योंकि उनके लिए हिन्दी या उर्दू केवल राष्ट्रभाषा ही नहीं, उनकी मातृभाषा भी है। चाहे एक पंक्ति ही हो, मुझे लिखिए जरूर।

आपका,

[अंग्रेजीसे]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।
सौजन्य : नारायण देसाई
  1. देखिए खण्ड १४ ।
  2. (१८७१ - १९१८); प्रसिद्ध पारसी दानवीर ।
  3. श्रीमती सरोजिनी नायडू (१८७९ - १९४९ ); प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ और कवयित्री । १९२५ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके कानपुर अधिवेशनकी अध्यक्षा; स्वतंत्रता प्राप्तिके बाद उत्तर प्रदेशकी राज्यपाल ।
  4. बिहार छात्र सम्मेलनके अध्यक्षको हैसियतसे ।
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