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पत्र : शुएब कुरैशीको

आदमीको । अच्छा बच्चो, भला बताओ तो जब सुदामा श्रीकृष्ण के यहाँ गया, तब वह कैसे कपड़े पहने था ? क्या वह रेशमी किनारीकी धोती, जरीका कोट, खासी कीमती दक्षिणी पगड़ी और कसीदेदार दुपट्टा पहने था ? नहीं, वह फटे-पुराने कपड़े पहने था। इसी तरह यह आदमी भी चिथड़े पहने था। क्यों रुखी, मालूम है, सुदामा क्या पहने था ? तुझे तो मालूम नहीं होगा, लेकिन मुझे तो मालूम है । क्योंकि मैं तो सुदामा के गाँव पोरबन्दरमें पैदा हुआ हूँ। खैर, सुदामाका मुँह किस तरफ था ? क्या अपने घरकी तरफ था ? भाई, वह तो अपना घर छोड़कर भगवान्‌के घर जा रहा था। इसी तरह हमारा यात्री भी अपने घरकी तरफसे मुँह मोड़कर किसी दूसरी ही ओर पग बढ़ा रहा था। और फिर, उसकी पीठपर क्या लदा था ? जैसी बोरी उसकी पीठपर लदी थी वैसी ही, रुखी, जब हम कोचरबमें थे, तब कभी मजदूर पाँच मनकी बोरी लेकर आता था, वह पसीनेसे लथपथ होता था और इतना झुक जाता था कि मैं उसे कैसे कह सकता था कि तू सीधा खड़ा रह। इस आदमीके हाथमें एक पुस्तक थी। वह पुस्तक और कोई नहीं, 'बाइबिल' ही थी । उसे पढ़कर उसकी आँखोंसे आँसू झर रहे थे। गोपीचन्दकी कथा याद है तुम्हें ? जब वह नहाने बैठा था, तब उसकी माता उसे ऊपरसे देख रही थी; उसकी आँखोंसे आँसू झर रहे थे और गोपीचन्दके ऊपर गिर रहे थे। बादल तो कोई थे नहीं, फिर भी वर्षा कहाँसे हो रही थी ? गोपीचन्दने देखा कि वर्षा तो उसकी माताकी आँखोंसे हो रही थी । लेकिन वह क्यों रो रही थी, यह तो फिर कभी समझाऊँगा। परन्तु इस यात्रीकी आँखोंसे भी आँसू झर रहे थे। वह भगवान् के घर जानेके लिए निकला था। वह तो भक्तप्रवर था इसलिए उसकी आँखों से आँसू झर रहे थे।

[ गुजरातीसे ]

महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४

५९. पत्र : शुएब कुरैशीको

सितम्बर २४, १९१८

मैं चाहता हूँ कि मेरी कलाई और उँगलियोंमें इतनी ताकत आ जाये कि आपको खास भगवानकी सँवारी अपनी लिखावटमें पत्र लिख सकूं। किन्तु अभी तो मुझे मित्रोंकी कलाई और उँगलियोंकी मददपर ही सन्तोष करना पड़ेगा। अली भाइयोंके मामलेकी जाँच-कमेटीके बारेमें आप सब कुछ जानते ही हैं । हम चींटीकी चालसे चल रहे हैं; आगेको या पीछेको, सो मैं नहीं जानता । सत्याग्रहीके लिए तो गतिमात्र आगे ले जानेवाली होती है । सरकारका इरादा अच्छा होगा, तब तो हम सबके लिए अच्छा है ही । अगर उसकी नीयत खराब होगी तो कार्य-कारणके अचूक नियमके अनुसार उसपर इसकी प्रतिक्रिया होगी ही । इससे उसे ही नुकसान होगा, हमें नहीं; शर्त एक ही है कि हम भी उसीके जैसे न बन जायें । हम ज्यादातर बुरेके साथ बुरे बन जाते हैं, इसलिए बुराई