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पत्र : वी० एस० श्रीनिवास शास्त्रीको

बनाये रखते थे और सभी मानते थे कि उनका हर निर्णय सर्वथा न्यायोचित और त्रुटि रहित होगा । श्री काछलिया एक प्रकारसे निरक्षर ही थे । उन्होंने अपना रास्ता स्वयं ही बनाया था। परन्तु उनकी जैसी व्यवहार-बुद्धि बिरलोंकी ही होती है । वह सदा ही उनके काम आई और वे अपने सम्पर्क में आनेवाले अनेक यूरोपीयोंके विश्वास और सम्मानके पात्र बन गये थे ।

इस हानिकी पूर्ति नहीं की जा सकती और चूंकि उनका निधन श्री सोराबजीकी[१] मृत्युके तत्काल बाद ही हुआ है, इसलिए भारतीय समाज इस हानिको दुना महसूस करेगा। ईश्वर उनकी आत्माको शान्ति दे; मुझे पूरा भरोसा है कि वे पूरी तरह इसके योग्य थे ।

आपका,
मो० क० गांधी


[ अंग्रेजीसे ]
बॉम्बे क्रॉनिकल, २१-१०-१९१८

६५. पत्र : वी० एस० श्रीनिवास शास्त्रीको

साबरमती
अहमदाबाद
अक्तूबर २०, १९१८

प्रिय श्री शास्त्रियर,[२]

हालाँकि मैं बीमार पड़ा हूँ, लेकिन डॉ० देवकी[३] स्मृतिमें अर्पित आपकी और अन्य मित्रोंकी श्रद्धांजलियोंमें अपनी भी एक विनम्र श्रद्धांजलि जोड़नेसे अपनेको रोक नहीं पाता । ' सवेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी' और देश दोनों ही ने एक सच्चा सेवक खो दिया है। 'सोसाइटी' के जिन-जिन सदस्योंके सम्पर्क में आया हूँ, उनमें सबसे अधिक सामीप्य मैंने डॉ० देवसे ही पाया, और मैं उनके जितने निकट पहुँचता गया; उनसे उतना ही अधिक प्रेम बढ़ता गया । मैं शायद कह सकता हूँ कि डॉ० देवको चम्पारनमें ही अपनी आत्माभिव्यक्तिकी पूरी-पूरी गुंजाइश मिली थी । वहाँ वे ऐसी परिस्थितियोंमें थे कि उनको अपने सभी महान् गुण यहाँतक कि चिकित्सा-सम्बन्धी अपनी योग्यता, परखनेका अवसर भी मिल गया था । वे न तो कभी विचलित हुए और न असफल । हालाँकि शुरूमें उनके सम्पर्क में आनेपर अधिकारियों और बागान मालिकोंने उनको


  1. देखिए “भाषण : सूरत में ", १-८-१९१८।
  2. १८६९-१९४६) विद्वान्, राजनीतिज्ञ और १९१५ से १९२७ तक भारत सेवक समाज ( सवेंटस ऑफ इंडिया सोसाइटी) के अध्यक्ष ।
  3. डॉ० हरि श्रीकृष्ण देव ( निधन ८ अक्तूबर, १९१८) सांगलीके राजचिकित्सक । वे १९१४ में भारत सेवक समाजमें शामिल हुए और उन्होंने चम्पारन में गांधीजीके साथ काम किया था ।

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