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७५. पत्र : सरोजिनी नायडूको

नवम्बर १८, १९१८

प्यारी बहन,

मुझे आपका संक्षिप्त पत्र पाकर अच्छा लगा । आप आपरेशनसे सही-सलामत निकल आईं। आशा करता हूँ कि वह पूरी तरह सफल साबित होगा, ताकि हिन्दुस्तानको बहुत वर्षों तक आपके गीत सुननेको मिलते रहें। पता नहीं चलता कि मैं अपनी रोग-शय्या कब छोड़ पाऊँगा । किसी भी तरह मेरा शरीर भरता ही नहीं और जितनी शक्ति है, उससे ज्यादा आती ही नहीं । मैं बहुत प्रयत्न कर रहा हूँ । लेकिन मैंने अपने-आपपर जो बन्धन लगा लिये हैं, उनके कारण डॉक्टरोंको निराशा हाथ लगती है । मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इस लम्बी बीमारीमें व्रतोंके ये बन्धन ही मुझे सबसे अधिक तसल्ली देते हैं। संयमके इन बलदायक बन्धनोंको तोड़नेकी शर्तपर मुझे जीनेकी जरा भी इच्छा नहीं । मेरे लिए वे शरीरको कुछ बाँधनेवाले होनेपर भी आत्माको मुक्त करनेवाले हैं। उनसे मुझे एक ऐसी चेतना मिली है, जो अन्यथा मेरे लिए दुर्लभ होती । 'ब्रह्म और मायाको एक साथ हरगिज नहीं भजा जा सकता,' इस वचनका अर्थ इन व्रतोंके बाद अधिक स्पष्टता और गहराईसे मेरी समझमें आया है । मैं यह नहीं कहता कि ये सबके लिए आवश्यक हैं, परन्तु मेरे लिए तो हैं। अगर मैं इन व्रतोंको तोड़ दूं, तो मेरा खयाल है कि मैं बिलकुल निकम्मा हो जाऊँगा । समय- समयपर दो शब्द लिखती रहिए ।

आपका,
मो० क० गांधी


[ अंग्रेजीसे ]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।
सौजन्य : नारायण देसाई

७६. पत्र : हरिलाल गांधीको

[ अहमदाबाद ]
नवम्बर २६, १९१८


चि० हरिलाल,

मैंने तुम्हें कल अपने बारेमें कुछ समाचार भेजे हैं। आज इस विषयमें और लिखता हूँ। मेरी तबीयत अच्छी भी है और खराब भी । ऐसा महसूस होता रहता है कि जो सुधार होना चाहिए, वह} नहीं होता। अब खुराकके बारेमें कोई शिकायत नहीं की जा सकती। सभी कहते हैं और मुझे भी ठीक मालूम होता है कि कुछ समय बाहर रहूँ, तो Gandhi Heritage Porta