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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अच्छा। इसलिए बाहर जानेकी सोच रहा हूँ और बन्दोबस्त कर रहा हूँ । मेरे जानेसे पहले यदि तुम आ जाओ तो अच्छा हो। तुम्हारे जीमें जो कुछ भरा हो, वह निस्संकोच मेरे सामने निकाल दो। अगर तुम मेरे सामने अपना हृदय नहीं खोल सकते, तो किसके सामने खोलोगे ? मैं तुम्हारा सच्चा मित्र बनूंगा। फिर तुम्हारी किसी भी योजनाके बारेमें हमारा मतभेद हुआ भी तो क्या हर्ज है ? हम बातचीत करेंगे। अन्तिम निर्णय तो तुम्हारे हाथमें ही रहेगा । तुम्हारी दशा इस समय स्वप्नवश मनुष्यकी-सी है, यह मैं अच्छी तरह समझ सकता हूँ । तुम्हारी जिम्मेदारियाँ बढ़ गई हैं, तुम्हारी कसौटियाँ भी बढ़ गई हैं और [ इसी प्रकार ] तुम्हारे प्रलोभन भी बढ़ जायेंगे । गृहस्थाश्रमी मनुष्यके लिए उसका गृहस्थ होना यानी सपत्नीक होना बड़े अंकुशका काम करता है । यह अंकुश तुम परसे उठ गया।[१]अब तुम जहाँ खड़े हो, वहाँसे दो रास्ते जाते हैं । तुम्हें कौन-सा रास्ता अपनाना है, इसका निर्णय करना बाकी है । आश्रममें एक भजन अक्सर गाया जाता है, जिसकी पहली कड़ी यह हैं :'निर्बलके बल राम'।

इन्सान घमण्डी बनकर ईश्वरकी सहायता नहीं माँग सकता, अपनी दीनता स्वीकार करके ही माँग सकता है। हम कितने तुच्छ हैं, कैसे रागद्वेषसे भरे हुए हैं, कितने विकार हमें विचलित करते रहते हैं, इस सत्यका साक्षात्कार में बिछौनेपर पड़ा-पड़ा नित्य करता रहता हूँ। कई बार मुझे अपने मनकी तुच्छतापर शर्म आती है। कई बार अपने शरीर को खुश करनेके लिए जो करना पड़ता है उससे निराश होकर केवल इसकी समाप्ति चाहता हूँ और अपनी दशासे मैं औरोंकी हालतका अन्दाज अच्छी तरह कर सकता हूँ । तुम्हें अपने अनुभवोंका लाभ पूरी तरह दूंगा । तुमसे जितना लिया जा सके, उतना लेना; और यह जब तुम आओगे, तभी हो जायेगा ।

बापूके आशीर्वाद

[ गुजरातीसे ]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४

७७. मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड योजना सम्बन्धी प्रश्नोंके उत्तर

[ दिसम्बर, १९१८]

बम्बईके एक गुजराती दैनिक समाचारपत्र --'हिन्दुस्तान'-- के एक लेखकने महात्मा गांधीसे खुले रूपमें निम्नलिखित प्रश्न पूछे हैं :

(१) आपने गुजरातकी ओरसे भारतके लिए कुछ अधिकारोंकी माँग करते हुए श्री मॉण्टेग्युके पास एक वृहदाकार प्रार्थनापत्र[२]भेजा था। मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड योजनामें उन अधिकारोंको समुचित स्थान दिया गया है या नहीं ?

  1. कुछ समय पूर्व ही हरिलाल गांधीकी पत्नीका देहान्त हो गया था।
  2. ।देखिए खण्ड १३, “ याचिका : श्री मॉण्टेग्युको”, १३-९-१९१७ के पूर्व, पृष्ठ ५३७ ।