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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


इस बात में वे भारतीय स्थायी भू-स्वामियोंसे किसी बातमें भिन्न नहीं हैं। परन्तु जैसा कि में स्वतंत्र जाँचके दौरान सरकारके पास बहुत शुरूमें भेजे गये अपने एक पत्रमें कह चुका हूँ,-- "हालांकि यह सच है कि उन्हें (गोरे बागान मालिकोंको) यह दूषित प्रणाली विरासत में मिली है किन्तु यह भी सच है कि अपनी बौद्धिक प्रवीणता और अधिकारपूर्ण स्थितिकी सहायतासे उन्होंने इन पुराने रिवाजोंका एक शास्त्र ही बना डाला है।" बंगाल काश्तकारी अधिनियमके अन्तर्गत इन जमींदारोंको यह अधिकार प्राप्त है कि वे अमुक निर्धारित परिस्थितियोंमें लगान बढ़ा सकते हैं और उसी प्रकार किसानोंको भी यह हक हासिल है कि अन्य दूसरी निर्दिष्ट परिस्थितियोंमें वे लगानमें कमी करानेकी कोशिश कर सकते हैं। यह सहज ही समझा जा सकता है कि लगानमें कमी तो शायद ही कभी सम्भव होगी, पर लगानमें इजाफा तो एक ऐसा सत्य है जो किसानको जीवन-भर त्रस्त रखता है। बन्दोबस्त अधिकारीका मुख्य कार्य इन लगानोंको संशोधित करना, प्रत्येक काश्तकारकी जोतकी फिरसे पैमाइश करना और लगान सम्बन्धी कुछ मामलोंमें जमींदार तथा काश्तकारके बीच होनेवाले झगड़ोंकी जांच करना है। बन्दोबस्त अधिकारीको इसके अतिरिक्त और कुछ करनेका अधिकार नहीं है। जो अत्यावश्यक मुद्दे चम्पारन समितिके सामने निर्णयके लिए पेश थे उनके सम्बन्धमें जांच करना या उनपर कोई फैसला देना उसके अधिकारके बाहरकी बात थी। मेरी खुदकी जाँच तो केवल ऐसे कष्टोंतक ही सीमित थी जो चम्पारनकी अधिकांश रैयतके सामान्य कष्ट थे और जिनके बारेमें कोई नया बन्दोबस्त करनेकी आवश्यकता न थी -- कारण, इन शिकायतोंकी अलग-अलग जाँचकी जरूरत थी ही नहीं। ये कष्ट मेरे चम्पारन पहुँचनेके क्षणसे ही मेरी नजरमें स्वतः आने लगे और कुछ ही सप्ताह के अन्दर मेरे पास उन कष्टोंको प्रमाणित कर सकने योग्य बहुत काफी मसाला एकत्रित हो गया। काश्तकारोंकी सबसे मुख्य शिकायत तो करीब सौ सालसे चली आ रही थी। इसके कारण रैयतकी दशा गुलामोंकी दशाके समान हो गई थी। यह कष्ट नीलकी खेती से सम्बन्धित था। इस नीलकी खेतीको तिनकठिया प्रणालीके नामसे पुकारा जाता था और इसके अन्तर्गत रैयतको जमींदार द्वारा पसन्द किया हुआ अपनी जमीनका कुछ भाग, जिसमें शुरूमें नील और बादको जमींदार द्वारा बतलाई हुई कोई अन्य फसल उगानी पड़ती थी, अलग कर देना पड़ता था। यह फसल उसे जमींदारको औने-पौने मूल्यपर बेच देनी पड़ती थी, और उसकी मेहनतके पैसे भी खड़े नहीं होते थे। इस सम्बन्धमें समितिकी रिपोर्ट इस प्रकार है:

किन्तु जिस शर्तपर किसान इन कोठीवारोंके लिए अबतक नीलकी खेती करते रहे हैं, उसके कारण अनेक बार झगड़े हुए हैं। और यद्यपि हम इन झगड़ोंके इतिहासपर विचार करना आवश्यक नहीं समझते; किन्तु इस प्रथाका कुछ विवरण दिये बिना हम वर्तमान असन्तोषके कारणोंको भली-भाँति स्पष्ट नहीं कर सकते। इसके मुख्य तत्त्व पिछले १०० वर्षोंमें बदले नहीं जान पड़ते।

इन सौ वर्षोंमें जब-जब कष्ट असहनीय हो गये तब-तब काश्तकारोंने अपनी शिकादूर कराने के लिए हिंसात्मक तरीकोंका सहारा लिया। जब-जब दंगे-फसाद हुए तब-तब कुछ थोड़ा-सा दे-दिवाकर मामला शान्त कर दिया गया। इन हिंसात्मक कृत्योंके परिणाम-