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सर शंकरन नायर और चम्पारन


स्वरूप उन काश्तकारोंकी हालत वस्तुतः पहलेकी बनिस्बत और भी बदतर हो गई। बागान-मालिकोंने उन दंगोंको कुचलनेके लिए पुलिस और फौजकी सहायता ली और पुरानी शिकायतें, जिनके कारण ये दंगे हुए थे लगभग बिलकुल ही विस्मृत कर दी गईं। कभी-कभी काश्तकारोंपर दाण्डिक-पुलिस तैनात कर दी जाती थी। काश्तकारोंको उनके पागलपनके एवजमें जो थोड़ा-बहुत सन्तोष प्राप्त होता था वह इतना ही कि उन्हें नीलकी कीमत पहलेकी अपेक्षा कुछ अधिक मिलने लगी। परन्तु नीलकी जबरन खेतीकी प्रथा और उससे उत्पन्न होनेवाले कष्ट ज्योंके-त्यों बने रहे और काश्तकारोंपर जमींदारोंका शिकंजा और भी मजबूत होता गया। जब काश्तकारोंने यह देखा कि हिंसा व्यर्थ है तब उन्होंने कचहरियोंके दरवाजे खटखटाना शुरू किया परन्तु जिस प्रकार हिंसा करने पर उनके हाथ कुछ न लगा था उसी प्रकार अदालतोंसे भी उनको कुछ हासिल नहीं हुआ। कभी-कभी फैसला न्यायसम्मत हो जाया करता था परन्तु असमान प्रतिद्वंद्वियोंके इस संघर्ष में काश्तकारोंकी पराजय निश्चित थी। भला गोरे जमींदारोंके प्रचुर साधनोंके सामने काश्तकारोंकी छोटी-सी थैली कैसे टिक सकती थी? मेरे कथनकी सत्यताका प्रमाण चम्पारनकी अदालतोंमें रखी हुई फाइलोंमें देखा जा सकता है। इस दुहरी असफलताको बन्दोबस्त अधिकारी न तो देख सकता था और न उसके विषयमें कुछ कह ही सकता था। मैं इस बातको भरसक जोरके साथ कहता हूँ कि चम्पारनके काश्तकारोंकी गत १०० वर्षोंकी कहानी अधिकारियोंकी उस असफलताकी भी कहानी है जो उन्होंने या तो स्थितिके भीतरी रूपको समझनेमें या उससे निपटनेमें दिखाई थी। हर काश्तकारने अधिकारियोंको भयंकर चेतावनी दी, परन्तु सब व्यर्थ रही। वे समस्यासे खिलवाड़ करते रहे, परन्तु उसकी तहृतक कभी नहीं गये। और यदि मैं चम्पारन न गया होता, यदि जबरदस्त कठिनाइयोंके बावजूद में वहाँ बने रहनेके अपने अधिकारपर दृढ़तापूर्वक न डटा रहता, और यदि मैं अपने कुछ मित्रोंकी इस सलाहको कि मामला अदालत द्वारा तय करा लो, दरकिनार न कर देता, और सबसे खास बात यह कि यदि मैं काश्तकारोंकी जरूरतोंको समझनेके लिए उनसे स्वयं जाकर न मिलता तो यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि बिहार सरकारने जो बड़ी राहत काश्तकारोंको दी वह उन्हें हरगिज न मिलती। बिहार सरकार नीलकी जबरन खेतीके अभिशापको हटाने का साहस कभी न करती। उसे मालूम था कि यह प्रथा एक अभिशाप है। उसे यह भी ज्ञात था कि काश्तकार लोग तिनकठियासे होनेवाले दुःखोंको व्यक्त करनेमें असमर्थ थे तथापि यह प्रथा उनके जीवनस्रोतोंको सुखाये दे रही थी और उनकी नैतिक तथा भौतिक शक्तिको निचोड़े डाल रही थी। बिहार सरकारको यह कहने में लज्जा नहीं है कि बिहार विधान परिषद्के अधिकांश सदस्योंने -- वे सदस्य जो बिहार सरकारकी ही भाँति इस प्रथाके दोषोंसे बिलकुल अनभिज्ञ थे -- बिहारके सच्चेसे-सच्चे व्यक्तियोंमें से एक श्री ब्रजकिशोर प्रसाद, जिन्हें अपने कथनके मर्मका पूरा ज्ञान था, द्वारा पेश किया गया प्रस्ताव रद कर दिया था। बिहार सरकारको उसी अवसरपर जान लेना चाहिए था कि इस ज्वलन्त प्रश्नके ऊपर बन्दोबस्त अधिकारी किंचित् भी प्रकाश नहीं डाल सकता था। सच तो यह है कि अगर जमीनका नया बन्दोबस्त न होता तो